Wednesday, April 8, 2015

आखरी किस्‍त swami-dayanand-ne-kiya-khoja-kiya-paya-second-edition-Part-4 last

¤ नपुंसक क्यों पैदा होते हैं? ---Link:-Unicode Book Part: one---two and three(BackPost)
  (53) किस कर्म के फल में नपुंसक लोग पैदा होते हैं?,  ( पी डी एफ mediafire और  archive  से  प्राप्‍त कर सकते हैं)
इस सवाल का जवाब स्वामी जी भी न दे पाए। नपुंसक गर्भ का कारण बताते हुए उन्हें कर्मफल की अवधारणा से हटना पड़ा। वह कहते हैं-
    ‘जो स्त्री के शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो स्त्री और पुरूष के शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो  पुरूष के शरीर में प्रवेश करता है। और नपुंसक गर्भ की स्थिति समय स्त्री पुरूष के शरीर में सम्बन्ध करके रज वीर्य के बराबर होने से होता है।’ (सत्यार्थ.,पृ.171)
    स्वामी जी ने औरत और मर्द का शरीर मिलने के लिए तो जीव के कर्म को ज़िम्मेदार माना है लेकिन नपुंसक शरीर मिलने के लिए जीव के कर्म के बजाय पति-पत्नी के रज-वीर्य को ज़िम्मेदार माना है। ऐसा मानना कर्मफल की अवधारणा के विपरीत तो है ही, जीव विज्ञान के प्रमाणित तथ्य के विपरीत भी है।
स्वामी जी ने यह भी नहीं बताया है कि किन कर्मों को करने से नर शरीर और किन कामों को करने से नारी शरीर मिलता है। ताकि अगर किसी को वह शरीर लेकर पैदा होना हो तो वह उस तरह के काम कर सके। वैसे आज इसकी ज़रूरत नहीं बची है कि मनोवाँछित लिंग पाने के लिए लोग अगले जन्म का इन्तेज़ार करें।
स्वामी जी के ज़माने के मुक़ाबले आज साइंस और टेक्नोलॉजी इस मक़ाम पर आ गई है कि औरतें और मर्द अपना लिंग अपनी मर्ज़ी के अनुसार बदल रहे हैं। माइकल जैक्सन ने तो अपना लिंग दो बार बदला था। आज बायो-टेक्नोलॉजी के ज़रिए गर्भ में ही बच्चे का लिंग, रूप-रंग और क़द वग़ैरह निश्चित करना संभव है। यह सब पूर्वजन्म के कर्मफल के विचार को निरर्थक सिद्ध करने के लिए काफ़ी है।

¤ आवागमन कैसे संभव है?
   इन्सान के लिए यह जानना बेहद ज़रूरी है कि मरने के बाद जीवात्मा के साथ क्या होता है? यही बात इन्सान को बुरे कामों से बचकर नेक काम करने की प्रेरणा देती है। प्रत्येक को अपने शुभ-अशुभ कर्मों का फल भोगना है लेकिन किस दशा में?
वैदिक धर्म में स्वर्ग-नर्क की मान्यता पाई जाती है। बाद में आवगमन की कल्पना प्रचलित की गई। स्वामी जी ने स्वर्ग-नर्क को अलंकार बताया और आवगमन की कल्पना का प्रचार किया। उन्होंने बताया कि मोक्ष प्राप्त आत्मा भी एक निश्चित अवधि तक मुक्ति-सुख भोगने के बाद जन्म लेती है और पापी मनुष्‍यों की आत्माएं भी कर्मानुसार अलग-अलग योनियों में जन्म लेती हैं।
    आवागमन की कल्पना सिर्फ इस अटकल पर खड़ी है कि सब बच्चे बचपन में एक जैसे नहीं होते। कोई राजसी शान से पलता है और कोई ग़रीबी, भूख और बीमारी का शिकार हो जाता है। ऐसा क्यों होता है? क्या ईश्वर अन्यायी है, जो बिना कारण ही किसी को आराम और किसी को कष्‍ट देता है? क्योंकि ईश्वर न्यायकारी है इसलिए इनके हालात में अन्तर का कारण भी इनके ही कर्मों को होना चाहिए और क्योंकि इनके वर्तमान जन्म में ऐसे कर्म दिखाई नहीं देते तो ज़रुर इस जन्म से पहले कोई जन्म रहा होगा। यह सिर्फ़ एक अटकल है हक़ीक़त नहीं।
एक मनुष्‍य जब कोई पाप या पुण्य का कर्म करता है तो उसके हरेक कर्म का प्रभाव अलग-अलग पड़ता है और उसके कर्म से प्रभावित होकर दूसरे बहुत से लोग भी पाप पुण्य करते हैं और फिर उनका प्रभाव भी दूसरों पर और भविष्‍य की नस्लों पर पड़ता है। यह सिलसिला प्रलय तक जारी रहेगा। इसलिये प्रलय से पहले किसी मनुष्‍य के कर्म के पूरे प्रभाव का आकलन संभव नहीं है। लोगों को प्रलय से पहले उनके कर्मों का बदला देना सम्भव नहीं है और यदि उन्हें बदला दिया जाता है तो किसी एक के साथ भी न्याय न हो पाएगा।
फिर भी अगर मान लिया जाए कि एक पापी मनुष्‍य को उसके पापों की सज़ा भुगतने के लिए पशु-पक्षी आदि बना दिया जाता है तो जब उसकी सज़ा पूरी हो जायेगी तो उसे किस योनि में जन्म दिया जाएगा? क्योंकि मनुष्‍य योनि तो बड़े पुण्य के फलस्वरूप मिलती है। इसलिए मनुष्‍य योनि में जन्म संभव नहीं है और पशु-पक्षी आदि की योनियों में उसे भेजना भी न्यायोचित नहीं है क्योंकि वह अपने पापकर्मों की पूरी सज़ा भुगत चुका है।
(54) मोक्ष प्राप्त आत्मा के जन्म के विष‍य में भी यही प्रश्न उठता है। एक निश्चित अवधि तक मुक्ति सुख भोगने के बाद मोक्ष प्राप्त आत्मा जन्म लेती है, लेकिन प्रश्न यह है कि किस योनि में लेती है?
(55) पाप उसने किया नहीं था और पुण्य का फल भी उसके पास अब शेष नहीं था। नियमानुसार ईश्वर उसे न तो पशु-पक्षी बना सकता है और न ही मनुष्‍य। क्या न्यायकारी परमेश्वर जीव को बिना किसी कर्म के पशु-पक्षी या मनुष्‍य योनि में जन्म दे सकता है?
(56) यदि यह मान भी लिया जाये कि दोनों को नई शुरूआत मनुष्‍य योनि से कराई जाएगी तो फिर बचपन में जब वे भूख, प्यास और मौसम आदि के स्वाभाविक कष्‍ट झेलेंगे तो इन कष्‍टों के पीछे क्या कारण माना जाएगा?, क्योंकि पाप तो दोनों के ही शून्य हैं।
इस तरह आवागमन की कल्पना से जिस समस्या का समाधान निकालने की कोशिश की गई। वह समस्या तो ज्यों की त्यों रही और वास्तव में मरने के बाद पाप पुण्य का फल जिस तरीक़े से मिलता है, उसे न जानने के कारण जीव को बहुत सा कष्‍ट उठाना पड़ता है।

¤ क्या दुखी मनुष्य पिछले जन्म का पापी है?
समाज में आवागमन की ग़लत धारणा आम हो चुकी है। इस कारण लोग दुख उठाने वाले को कितनी बुरी नज़रों से देखते हैं बल्कि अच्छे आदमी ख़ुद अपनी नज़र में भी गिर जाते हैं और अपनी नज़र से गिरे हुए को कौन उठा सकता है ?
    हक़ीक़त यह है कि दुनिया ईश्वर की पाठशाला है। जहां वह मनुष्यों का शिक्षण और प्रशिक्षण विभिन्न माध्यमों से स्वयं कर रहा है। वह मनुष्यों का परीक्षण भी करता है और उन्हें दुनिया में सज़ा और ईनाम भी देता है। परलोक में वह अपने न्याय को पूर्ण करेगा।
    शिक्षण-प्रशिक्षण और परीक्षण में विद्यार्थियों को कष्ट होता ही है। यह स्वाभाविक है। जो विद्यार्थी अच्छे होते हैं। वे नियमों का पालन करके शिक्षा ग्रहण करते हैं और कठिन परीक्षा देते हैं और सफल होते हैं, उन्हें भी कष्ट होता है और जो नियमों का उल्लंघन करते हैं और परीक्षा में फ़ेल हो जाते हैं, उन बुरे विद्यार्थियों को भी कष्ट होता है। दुख और कष्ट सबको होता है लेकिन दोनों के कष्ट का कारण अलग अलग होता है। दुनिया में भी अच्छे और बुरे हरेक आदमी को कष्ट होता है लेकिन आवागमन के कारण अच्छे आदमी को कष्ट उठाता देखकर उसे भी बुरा समझ लिया जाता है।
    दुनिया में एक अच्छा आदमी बुरे लोगों के खि़लाफ़ संघर्ष करता है। बुरे लोग उसे जीवन भर कष्ट देते हैं और फिर उसकी हत्या कर देते हैं या उसे धोखे से ज़हर खिला देते हैं। आवागमन को मानने वाले उसके बारे में यह सोचते हैं कि यह बहुत बुरी मौत मरा है। इसके पूर्व जन्म के पापों का फल ही अब इसके सामने आया है। ज़रूर इसने पिछले जन्म में इन लोगों की हत्या की होगी, जिन्होंने इस जन्म में इसे क़त्ल किया है। लोगों के सामने यह सुधारक होने का ढोंग कर रहा था लेकिन ईश्वर ने न्याय करके इसकी असलियत सबके सामने खोल दी।
(57) क्या लोगों का ऐसा सोचना सही कहलाएगा ?
    स्वामी दयानन्द जी की तरह आदिशंकराचार्य को भी ज़हर देकर मार डालना बताया जाता है। दोनों वैदिक आचार्य आवागमन के प्रचारक थे। बडे़ भयानक कष्ट उठाने के बाद उनके प्राण निकले। स्वामी जी ने कहा है-
    ‘क्योंकि दुःख का पापाचरण और सुख का धर्माचरण मूल कारण है।’ (सत्यार्थप्रकाश, नवम., पृ.165)
(58) ज़रा सोचिए कि अगर दुख का कारण पापाचरण को माना जाए तो स्वामी ने जो दुख भोगे उनका कारण क्या माना जाएगा?
  
¤ दुःख का कारण हमेशा पापाचरण नहीं होता
हक़ीक़त यह है कि दुःख का कारण हमेशा पापाचरण नहीं होता। सुख-दुख का मूल पिछले जन्म का आचरण मानना ग़लत है। योग से रोग ठीक होने का दावा करने वाले बाबा रामदेव के गुरू जी भी काफ़ी वृद्ध हो गए थे। लापता होने से पहले वह भी काफ़ी समय से बीमार चल रहे थे। जब पिछले दिनों स्वयं बाबा रामदेव जी ने आमरण अनशन किया तो चंद ही दिनों में उनकी हालत बिगड़ गई और उनकी जान जाने की नौबत तक आ गई। इस घोर कष्ट के पीछे उनका कोई पूर्व जन्म का पापाचरण नहीं था बल्कि खाना-पीना छोड़ देना था। उचित इलाज के साथ जैसे ही उन्होंने खाना-पीना ्युरू किया। उनका कष्ट दूर हो गया।
    यह तो सामने की बात थी लेकिन कुछ कष्टों का कारण ज़रा दूर होता है। कई बार कष्टों का कारण वंशानुगत ;भ्मतमकपजमतलद्ध भी होता है।
स्वामी विवेकानन्द के पिता जी को मधुमेह ;क्पंइमजमेद्ध की बीमारी थी। स्वामी जी भी इस बीमारी के शिकार हो गए। उन्हें मधुमेह के अलावा लिवर और गुर्दे की बीमारियों, मलेरिया, माइग्रेन, अनिद्रा और दिल की बीमारियों सहित 31 बीमारियों से जूझना पड़ा था। जिनका कारण मशहूर बांग्ला लेखक ्यंकर ने अपनी पुस्तक ‘द मॉन्क ऐज़ मैन’ में बताया है। उन्होंने लिखा है कि स्वामी विवेकानन्द सन 1887 ई. में अधिक तनाव और भोजन की कमी के कारण काफ़ी बीमार हो गए थे।
(आधार ः हिन्दी दैनिक द सी एक्सप्रेस दिनांक 7 जनवरी 2013 पृ. 2 की रिपोर्ट)
    व्यक्ति जिस समाज में रहता है। उस समाज का सामूहिक आचरण भी व्यक्ति के सुख-दुख का कारण बनता है और विगत समाज के लोग जो कुछ अच्छा या बुरा करके गए हैं, उसका परिणाम भी आज मौजूद लोगों को भोगना पड़ता है। द्वितीय विश्वयुद्ध जिन जापानियों ने लड़ा था। वे आज मौजूद नहीं हैं लेकिन उन पर जो प्रतिबन्ध लगाए गए थे वे आज की जापानी नस्ल पर भी लगे हुए हैं। नागासाक़ी और हिरोशिमा में आज भी विकलांग बच्चे पैदा होते हैं।
    एक व्यक्ति एक विशाल समाज का अंग है। उस समाज का एक अतीत भी है। उस अतीत के अच्छे बुरे कर्मों का अच्छा या बुरा असर आज भी हम पर पड़ रहा है। कई बार परिवर्तन भी कष्ट का कारण बनता है। विशेषकर तब, जबकि समाज के सदस्यों में मूर्तिपूजा, नशा, जुआ, दहेज और अन्याय का चलन आम हो जाए और उन्हें परिवर्तन के लिए कहा जाए। यदि वे  अपनी परम्पराओं में परिवर्तन करते हैं तो उन्हें अवश्य ही कई तरह के कष्ट का सामना करना पड़ेगा और यदि वे नहीं बदलते तो वे उपदेशक को अवश्य कष्ट देंगे। इस रहस्य को जान लिया जाता तो अपने कष्टों के लिए अपने किसी अज्ञात पूर्वजन्म को मानने की ज़रूरत ही न पड़ती। जिसका ज़िक्र वेदों में कहीं भी नहीं है।

¤ कष्ट का कारण दूसरों के कर्म भी होते हैं
आवागमन की मान्यता का खण्डन स्वामी दयानन्द जी के कथन से ही हो जाता है। वह कहते थे-
    ‘लड़के लड़की के उत्पन्न होते समय जो इस देश में नीच जाति की स्त्रियां उत्तम घरों में जाकर नाड़ीछेदन और धात्री का काम करती हैं और उसके मुख में उंगलियां डालती हैं, वह बहुत बुरी बात है। घर की स्त्रियों को चाहिए कि वह स्वयं करें जिनसे उसकी बुद्धि तीव्र होगी।’ (महर्षि दयानन्द सरस्तवी का जीवन चरित्र, पृष्ठ 126)
    पूर्वजन्म के कर्मफल के नतीजे में  बच्चों का व्यक्तित्व और उनकी योग्यता बनती तो दूसरे व्यक्तियों द्वारा किए गए उपाय का उन पर कोई प्रभाव न पड़ता। उनके प्रारब्ध के अनुसार उन्हें जैसा बनना होता, वे वैसे ही बना करते।
हक़ीक़त यह है कि पैदा होने के बाद ही नहीं बल्कि बच्चे पर गर्भ में भी उसकी माँ के खान-पान और सोने-जागने का असर पड़ता है बल्कि उसकी माँ जो बातें सुनती है या जैसे विचार करती है, उन सबका असर बच्चे पर पड़ता है। इसे सनातनी और आर्य समाजी भी स्वीकार करते हैं।
    राजा निकम्मा और उसके सलाहकार अयोग्य हों तो भी उसके राज्य में रहने वालों को कष्ट भोगना पड़ता है। यह सत्य भी बम्बई के एक व्याख्यान में स्वामी जी ने स्वयं स्वीकार किया है। जिसका ज़िक्र आगे ‘आर्य लोगों की दुर्दशा कैसे राजाओं के कारण हुई?’ शीर्षक के अन्तर्गत आ रहा है।
(59) यह सब मानने के बाद किसी बच्चे की बुद्धि कम होने या उसके कष्टों का कारण उसके पूर्व जन्म के कर्मों को मानने की ज़रूरत ही कहाँ रह जाती है?

¤ आवागमन को मानना महापाप क्यों है?
किसी किसान का चारा काटते हुए हाथ कट जाता है और कोई ईमानदारी से पेट पालने वाला मज़दूर दीवार से गिरकर हड्डी तुड़वा बैठता है। कोयले की खदानों में काम करने वाले हज़ारों मज़दूरों को ज़हरीली गैसें अपाहिज बना देती हैं या मार ही देती हैं। सियाचिन की पहाड़ियों पर जहां तापमान शून्य से कम होता है। वहां सरहदों की हिफ़ाज़त करने वाले हमारे बहादुर फ़ौजियों के हाथ पैर गल जाते हैं। कितनी ही लड़कियां गर्भ में मार दी जाती हैं। कितनी ही पैदा होकर बचपन या जवानी में किसी की हवस का शिकार हो जाती हैं और क़त्ल भी कर दी जाती हैं। कितनी ही दहेज न होने के कारण बिन ब्याही रह जाती हैं। कितनी ही दहेज कम लाने के कारण मार दी जाती हैं या घरों से निकाल दी जाती हैं। कितनी ही औरतें बच्चों को जन्म देते समय मर जाती हैं या किसी डाक्टर की लापरवाही का शिकार होकर जीवन भर के लिए अपाहिज बन जाती हैं। प्रसव पीड़ा का कष्ट तो ये सब उठाती ही हैं।
    आवागमन को मानने वाले उनके बारे में यही सोचते हैं कि पिछले जन्म के बुरे कर्म इस रूप में इनके सामनें आ रहे हैं। वे स्वयं भी अपने बारे में यही सोचते हैं। समाज के लोग उन्हें मुंह पर तो कुछ नहीं कहते लेकिन उनकी पीठ पीछे उन्हें धिक्कारते रहते हैं। वे ख़ुद अपने आप को धिक्कारते रहते हैं, बिल्कुल बेवजह। सब एक दूसरे की नज़र से और ख़ुद अपनी नज़र से भी गिर जाते हैं। किसी को सबकी नज़रों से और ख़ुद उसकी नज़रों में भी गिरा देना एक महापाप है। आवागमन को मानकर लोग यही पाप करते हैं। इसलिए आवागमन को मानना महापाप है।

¤ आवागमन और विधवा जीवन
इससे अपाहिजों, बीमारों और ग़रीबों की सेवा का जज़्बा भी कमज़ोर पड़ जाता है। जब ईश्वर ने ही इनके कुकर्मों के दण्ड में इन्हें ऐसा बनाया है तो भोगने दो इन्हें अपने कर्मों का फल, ऐसी सोच बन जाती है। आवागमन में विश्वास रखने वाले तुलसीदास जी बताते हैं कि जो नारी अपने पति से प्रेम नहीं करती वह अगले जन्म में विधवा हो जाती है अर्थात जो नारियां आज विधवा हैं, ये पिछले जन्म में अपने पतियों से प्रेम नहीं करती थीं।
पति प्रतिकूल जन्मि जहं जाई,
विधवा होय पाइ तरूणाई
-रामचरित मानस, अरण्य कांड
इसीलिए आवागमन में विश्वास रखने वालों ने जब मनुस्मृति की रचना की तो उसमें विधवा के पुनर्विवाह की व्यवस्था करके उसके कष्ट निवारण की कोई कोशिश नहीं की बल्कि यह लिखकर उसके कष्ट को स्थायी बना दिया-
‘न विवाहविधावुक्तं विधवावेदनं पुनः’ -मनुस्मृति, 9,65
अर्थात विवाहविधि में विधवा के पुनर्विवाह का कहीं विधान नहीं हैं।
‘कामं तु क्षपयेद्देहं पुष्पमूलफलैः शुभैः।
न तु नामापिगृह्णीयात्पत्यौ प्रेते परस्य तु।।’ -मनुस्मृति, 5,157
अर्थात पति के मरने पर स्त्री पवित्र पुष्प फल-मूल आदि का भोजन करती हुई अपनी देह को क्षीण करे, किन्तु पर-पुरूड्ढ का कभी नाम न ले।
    इसी मान्यता के चलते विधवा का जीवन कष्टपूर्ण बना और उसे पति को खा जाने वाली मानकर उसका तिरस्कार किया गया। आज अकेले वृन्दावन में ही ऐसी 16,000 विधवाएं रह रही हैं। जिन्हें उनके घर वालों ने त्याग दिया हैं। देश भर में कुल कितनी विधवाएं तिरस्कारपूर्ण जीवन बिता रही होंगी, अनुमान लगाया जा सकता हैंं।
  
¤ स्वामी जी द्वारा हिन्दू धर्म के तीर्थ स्थल का अपमान
स्वामी जी वृन्दावन का चित्रण करते हुए कहते हैं-
    ‘और वृन्दावन जब था तब था अब तो वेश्यावनवत् लल्ला लल्ली और गुरू चेली आदि की लीला फैल रही हंै।’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृ.222)
(60) क्या स्वामी जी के द्वारा एक हिन्दू धर्म-नगरी और उसमें निवास करने वाले हिन्दू नर-नारियों का ऐसा अपमानजनक चित्रण करना सही कहला सकता हैं?
    सभी धर्म-प्रेमियों के साथ हमें भी उनके शब्दों पर आपत्ति है। स्वामी जी को इस बात पर ध्यान देना चाहिए था। कि आखि़र किस कारण आर्य-नारी की यह दुर्दशा हुई है?
इसका एक बड़ा कारण आवागमन की ग़लत मान्यता का प्रचार हैं। स्वामी जी आजीवन भारतीय नारी की दुर्दशा के इस कारण को पुष्ट करते रहे।
फिर भी अगर हिन्दू धर्मशास्त्रों की व्यवस्था को नज़रअन्दाज़ करके कोई बिरला मर्द किसी विधवा को सहारा दे देता था तो ऐसी औरत को पुनर्भू (मनुस्मृति 9,160) कहा जाता था। और उसके पति का भी बहिष्कार कर दिया जाता था। (देखें मनुस्मृति 3,166)।
इतना ही नहीं बल्कि पुनर्भू औरत की संतान का जीवन भी अपमानजनक और कष्टपूर्ण बना दिया जाता था, यह व्यवस्था देकर कि
‘पुर्नभू का पुत्र संपत्ति का अधिकारी नहीं है।’ -मनुस्मृति, 9,160
    जबकि नियोग से उत्पन्न पुत्र को संपत्ति का अधिकारी माना गया है। स्वामी जी की मान्यता के अनुसार मनुस्मृति के ये नियम 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हज़ार वर्ष  से विधवा पर लागू हैं और आगे भी यही लागू रहें। इसके लिए स्वामी जी जीवन भर जुटे रहे।
  
¤ विधवा विवाह सच्चे धर्म का एक मुख्य आदेश है
    वास्तव में परमेश्वर विधवा नारी को भी कुमारी की तरह विवाह करने की अनुमति और आज्ञा देता है। जो उसके विवाह को रोकते हैं, ऐसे पापियों को परमेश्वर परलोक में दण्ड देने चेतावनी देता है। दुनिया में पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पाता। इसलिए दुनिया से जाने के बाद तो अवश्य ही न्याय होना चाहिए। यह मनुष्य स्वभाव की अनिवार्य माँग है। क़ुरआन बताता है कि परलोक में न्याय होगा और परमेश्वर समाज के ज़ालिम चैधरियों को उनके समर्थकों समेत दहकती हुई आग में डालेगा। जहां वे अनन्त काल तक जलते रहेंगे। उन्हें ऐसा शरीर दिया जाएगा, जिससे वे उस कष्ट को और ज़्यादा महसूस करें। जब उनकी खाल जल जाएगी तो नई खाल उसकी जगह ले लेगी। वे जलते रहेंगे लेकिन वे कभी मरेंगे नहीं। उन्हें खाने के लिए काँटेदार झाड़ियाँ और पीने के लिए पीप और लहू दिया जाएगा।
    ‘उन्होंने फै़सला चाहा और प्रत्येक सरकश, दुराग्रही असफल होकर रहा। वह जहन्नम से घिरा है और पीने को उसे कचलहू का-सा पानी दिया जाएगा, जिसे वह कठिनाई से घूँट-घूँट करके पिएगा और ऐसा नहीं लगेगा कि वह आसानी से उसे उतार सकता है और मृत्यु उसपर हर ओर से चली आती होगी, फिर भी वह मरेगा नहीं। और उसके सामने कठोर यातना होगी।’ (क़ुरआन, 14,15-17)
    स्वामी जी ने अनुचित रूप से क़ुरआन की इस न्याय व्यवस्था का मज़ाक़ उड़ाया है और मनुस्मृति की प्रशंसा करते हुए कहा है कि
    ‘यह तो पोपाबाई का न्याय ठहरा।...न्याय तो वेद और मनुस्मृति का देखो जिसमें क्षण मात्र भी विलम्ब नहीं होता और अपने अपने कर्मानुसार दण्ड वा प्रतिष्ठा सदा पाते रहते हैं।’ (सत्यार्थप्रकाश, 14वाँ समुल्लास, पृ.385)
    आवागमन को न मानने वाले मुसलमान और ईसाई भारत में आए तो हिन्दू विधवाओं को पुनर्विवाह का हक़ मिला। विधवा के संबंध में वेद और मनुस्मृति की न्याय व्यवस्था को सनातनी हिन्दुओं और आर्य समाजियों ने, सबने मिलकर त्याग दिया है। आज इस तरह के नियमों पर चलना क़ानूनी रूप से भी प्रतिबंधित है।
  
¤ ...क्योंकि हरेक बच्चा मासूम और निष्पाप है
माँ-बाप या डाक्टर की लापरवाही के कारण जो बच्चे अपाहिज पैदा होते हैं। उन मासूम बच्चों को भी पिछले जन्म का पापी मान लिया जाता है। मासूम विकलांग बच्चों को पापी ठहराना मानवता के प्रति सबसे घृणित अपराध है। ऐसा केवल इसलाम कहता है। इसलाम के अनुसार हरेक बच्चा मासूम और निष्पाप है।
    आवागमन की मान्यता पर विश्वास करने का दण्ड इसी दुनिया में तुरंत मिलता है और वह इस रूप में मिलता है कि ऐसे आदमी को उसका समाज और अपने आप को वह स्वयं भी धिक्कारता रहता है। वह जीता है लेकिन समाज की और ख़ुद की नज़रों में गिर कर। आवागमन को मानने के बाद ज़िल्लत की यह ज़िन्दगी नसीब होती है।
इस ज़िल्लत से छुटकारा केवल इसलाम दिलाता है।

¤ जीवन के उद्देश्य से भटका देता है आवागमन
आवागमन को मानने के बाद मनुष्य का ध्यान जीवन के उद्देश्य से हट जाता है। आवागमन के प्रचारक उसे बताते हैं कि जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि आवागमन से मुक्ति पाना है। मुक्ति पाने के लिए वे धर्म के पालन पर ज़ोर देते हैं। धर्म का उन्हें पता नहीं है। ऐसे में वे धर्म यह बताते हैं कि इन्सान और इन्सान में भेदभाव करो। किसी को ऊँचा समझो और किसी को नीचा समझो। छूत-छात को मानो। औरत विधवा हो जाय तो उसका पुनर्विवाह न होने दो। उसका एक से लेकर दस पुरुड्ढों तक से नियोग कराओ। नियोग से जन्मे व्यक्ति को राजा बना लो लेकिन पुनर्भू की संतान को सम्पत्ति में हिस्सा न दो। यदि परिस्थितिवश किसी औरत को दासी बनना पड़ जाए तो उसकी संतान पर उन्नति का द्वार सदा के लिए बंद कर दो। चाहे कोई पुरूष उस दासी से विवाह करके ही पुत्र पैदा करे लेकिन तब भी उसके पुत्र को दासी पुत्र समझो और उसे  मंत्री न बनाओ। हज़ारों साल बाद भी उस औरत के वंश में पैदा होने वाले बच्चों को दासी पुत्र समझो और उनमें से भी किसी को अपना मंत्री न बनाओ।
आवागमन से मुक्ति के लिए ये सब काम सनातनी पंडित भी बताते रहे और स्वामी दयानन्द जी ने भी यही काम बताए हैं। सबसे बुरी बात यह हुई कि ये काम धर्म कहकर बताए गए। जबकि ये अधर्म के काम थे। इनके विपरीत करना धर्म है। इसलाम यही कहता है। इसलाम को अपने दर्शन के विपरीत पाकर ऊँच-नीच, छूत-छात और जातिवाद को बढ़ावा देने वाले धंधेबाज़ उसके खि़लाफ़ अफ़वाहें फैलाने लगे। स्वामी जी ने भी इसी कारण इसलाम का विरोध किया।

¤ आवागमनः एक बड़ा धंधा
    आवागमन से मुक्ति का मार्ग बताने वाले समाज में गुरू कहलाते हैं और उनके चेले उन्हें बड़ा सम्मान देते हैं। उनके चेले उन्हें मान-सम्मान के साथ धन-संपत्ति भी देते हैं। कोई उस धन को आवागमन के प्रचार में लगा देता है और कोई उसे अपने ऐशो आराम में खपा देता है। दोनों ही हालतों में गुरूओं को सम्मान मिलता है और उनके चेलों को बर्बादी के सिवा कुछ भी नहीं।
    अगर लोगों को पता चल जाए कि आवागमन होता ही नहीं है तो वे इनकी सेवा-टहल करना बंद कर देंगे और इनकी चैधराहट ख़त्म हो जाएगी। अपने प्रभुत्व की रक्षा के लिए ही वे अपने चेलों को इसलाम के खि़लाफ़ भड़काते हैं। इसलाम के खि़लाफ़ रचे गए सारे अज्ञानपूर्ण साहित्य के पीछे यही कारण है।


¤ इसलाम आवागमन से मुक्ति तुरंत देता है
इसलाम से यह हक़ीक़त पता चलती है कि मनुष्य की आत्मा का कर्मानुसार इस दुनिया में बारम्बार आवागमन नहीं होता। इसलिए आवागमन से मुक्ति पाना मनुष्य के जीवन का उददेश्य नहीं है बल्कि जब तक मनुष्य आवागमन के भ्रम से न बचे तब तक वह अपने जीवन का उद्देश्य पूरा नहीं कर सकता। इसलाम इन्सान को आवागमन की मान्यता से ही मुक्त कर देता है। इससे मनुष्य को तुरंत शांति मिलती है। आवागमन की मान्यता को नकारते ही उसे ऊँच-नीच, छूत-छात और पुनर्विवाह पर पाबंदी जैसी समस्याओं से भी मुक्ति मिल जाती है। अब मनुष्य खुलकर योग्यता अर्जित कर सकता है और वह अपनी योग्यता के अनुसार समाज को अपनी सेवाएं भी दे सकता है।

¤ विकास और सफलताः जीवन का वास्तविक उद्देश्य
    मनुष्य का यह उद्देश्य केवल एक दशा में पूरा होता है जबकि वह ईश्वरीय ज्ञान के आलोक में सीधे मार्ग पर चले। इसी को अरबी में इसलाम अर्थात परमेश्वर के प्रति प्रेमपूर्ण समर्पण और उसकी आज्ञा का पालन करना कहा जाता है। इसलाम के अनुसार ऊँच-नीच और छूत-छात मानना ज़ुल्म है। विधवाएं पुनर्विवाह कर सकती हैं और दासी-पुत्र भी मंत्री बन सकता है। यही ईश्वर की आज्ञा है। ईश्वर की आज्ञा का पालन करना ही मनुष्य मात्र का धर्म है। उसकी आज्ञा का पालन करने वाले ही सफल होकर स्वर्ग में जाएंगे और उसकी आज्ञा न मानने वाले नर्क में जाएंगे।

¤ आवागमनः दर्शन की एक मूल भूल
‘परलोक में स्वर्ग नर्क है।’ यह सत्य है जिसे धार्मिक जन सदा से मानते आये हैं। आवागमन एक मिथ्या कल्पना है जिसे वेदों के बाद उपनिषद काल में दार्शनिकों ने अपने मन से गढ़ा था। ‘पुनर्जन्म’ का अर्थ है ‘दूसरी बार जन्म होना’ जो कि परलोक से सम्बन्धित है और सत्य है। जबकि आवागमन इसी दुनिया में बारम्बार जन्म लेने की वेदविरुद्ध और झूठी मान्यता का नाम है। इसके समर्थन में वेदों में कोई एक भी सूक्त अथवा अध्याय नहीं पाया जाता। धार्मिक और दार्शनिक, दोनों व्यक्तियों के बीच सच और झूठ का अन्तर स्पष्ट करने वाला यह प्रमुख लक्षण है। वेदों के जिन मंत्रों में परलोक में पुनर्जन्म होने की बात कही गई है, उन मंत्रों को आवागमन के समर्थन में पेश कर दिया जाता है। जब से धर्म का ज्ञान न रहा, तब से दार्शनिक यह धोखा खाते भी आ रहे हैं और दूसरों को देते भी आ रहे हैं।
किसी व्यक्ति को उसका जुर्म बताए बिना और उसे अपनी सफ़ाई का मौक़ा दिए बिना सज़ा देना ‘प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त’ के खि़लाफ़ है। ऐसा करना ज़ुल्म है और ईश्वर ज़ालिम नहीं है। जो ऐसा मानते हैं वे अज्ञान के कारण ईश्वर पर आरोप लगाते हैं।
यह वेदों के साथ सरासर अन्याय है कि वेदों का नाम लेकर दर्शन का पाठ पढ़ाया जाता है। इस मामले में अद्वैतवादी सनातनी और त्रैतवादी आर्य दोनों समान हैं। दर्शन की ग़लतियां खुलने से लोगों का विश्वास धर्म से भी उठ जाता है। अतः यह रीति उचित नहीं है।

¤ क्या मुक्ति संभव है?
     जब आवागमन होता ही नहीं है तो फिर बंधन और मुक्ति केवल कल्पना मात्र हैं। स्वामी जी ने आवागमन को माना है, उन्होंने उससे मुक्ति के लिए इतना कठिन नियम बताया है कि उसे वे ख़ुद भी पूरा न कर सकें। उन्होंने आवागमन को माना, जो कि असंभव है। फिर उन्होंने उससे मुक्ति को भी असंभव बना दिया।
यदि मुक्ति के लिए पूरे जीवन में पाप न करना अनिवार्य नियम है तो फिर किसी मनुष्‍य को मुक्ति मिलना संभव नहीं है। किसी और को मुक्ति क्या मिलेगी जबकि इस नियम की कल्पना करने वाले खुद स्वामी जी को ही मुक्ति मिलना संभव न हुआ। हालांकि उनका दावा था कि मैं संसार को क़ैद कराने नहीं, क़ैद से छुड़ाने आया हूँ लेकिन जो खुद ही मुक्ति न पा सका हो वह दूसरे को कैसे मुक्ति दिला सकता है? इससे पता चलता है कि उनके दावों में कोई सच्चाई नहीं थी।
(61) जब महर्षि के स्तर के आदमी को ही मुक्ति न मिल पाए तो क्या बेचारे साधारण जीवों को मुक्ति की उम्मीद दिलाना व्यर्थ नहीं है?
लोगों को क्षमा और मुक्ति से निराश करने का परिणाम यह हुआ कि लोगों की दिलचस्पी दयानन्दी दर्शन में कम हो गई और आर्य समाज मन्दिर रविवार को भी वीरान रहने लगे। लोग इधर-उधर उम्मीद की किरण ढूंढने लगे। यहाँ तक कि खुद आर्य समाज के सभासदों की पत्नियाँ और बच्चे भी मूर्ति-पूजक, वेदान्ती और अन्य मत वाले हो गए।

¤ क्या ‘नियोग’ की व्यवस्था ईश्वर ने दी है?
     स्वामी दयानंद जी ने स्त्री शिक्षा पर बल देकर औरत का कुछ भला ज़रूर किया है लेकिन विधवा औरत और विधुर मर्द को अपने जीवन साथी की मौत के बाद पुनर्विवाह करने से वेदों के आधार पर रोक दिया है और बिना दोबारा विवाह किये ही दोनों को ‘नियोग‘ द्वारा सन्तान उत्पन्न करने की व्यवस्था दी है।
‘द्विजों में स्त्री और पुरुड्ढ का एक ही वार विवाह होना वेदादि ्यास्त्रों में लिखा है, द्वितीय वार नहीं।’ (सत्यार्थप्रकाश, चतुर्थ., पृ. 76)
इस सम्बंध में सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थसमुल्लास में पृष्‍ठ संख्या 73 से 81 तक पूरे 9 पृष्‍ठों में वेदमन्त्रों सहित पूर्ण विवरण दिया गया है। स्वामीजी के अनुसार एक विधवा स्त्री बच्चे पैदा करने के लिए वेदानुसार दस पुरुषों के साथ ‘नियोग’ कर सकती है और ऐसे ही एक विधुर मर्द भी दस स्त्रियों के साथ ‘नियोग‘ कर सकता है। बल्कि यदि पति बच्चा पैदा करने के लायक़ न हो तो पत्नि अपने पति की अनुमति से उसके जीते जी भी अन्य पुरुष से ‘नियोग’ कर सकती है। स्वामी जी को इसमें कोई पाप नज़र नहीं आता।
(62) क्या वाक़ई ईश्वर ऐसी व्यवस्था देगा जिसे मानने के लिए खुद वेद प्रचारक ही तैयार नहीं हैं?
    जंगली क़बीलों से लेकर उन्नत देशों तक, जिनके पास ईश्वरीय विधान नहीं है। उन्होंने भी जब अपनी अक्ल से विधवाओं की समस्या को हल करना चाहा तो पुनर्विवाह को ही विधवा समस्या का सही हल पाया लेकिन ईश्वर को विधवा का पुनर्विवाह उचित नहीं लगा और उसने नियोग का उपदेश दिया और यह सोच कर ताज्जुब होता है कि
(63) स्वामी जी ने कैसे मान लिया कि बुद्धिमान आर्य नर-नारी 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 52 हज़ार 9 सौ वर्ष  तक नियोग करते रहे?
इसलाम में विधवा विवाह को ईश्वर का आदेश माना जाता है। मुसलमान इस देश में आए तो आर्यों ने उन्हें विधवा का पुनर्विवाह करते देखा। तब उन्होंने नियोग छोड़कर विधवा विवाह करना शुरू किया। ऐसा करने के लिए आर्यों को अपने प्रचलित धर्म (?) के विरूद्ध जाना पड़ा।
किसी समाज में नियोग का प्रचलन केवल तभी संभव है जबकि उसमें धर्म से हीन व्यक्ति प्रभावी हो जाएं और वे समाज के क़ायदे-क़ानून बनाने लगें। यही लोग समाज की सही-ग़लत की समझ को विकृत करते हैं। जब ऐसे व्यक्ति राजनीति और प्रशासन में हावी हो जाते हैं तो आम लोग सहज ही उनका अनुकरण करने लगते हैं। किसी ऐसे ही राजा के दबाव में नियोग का प्रचलन हुआ होगा। जिसे बाद के लोगों ने उनकी परम्परा में देख कर धर्म समझ लिया और उसे स्मृति आदि ग्रन्थों में लिख दिया। यह एक तथ्य है कि पूर्वजों की सभी परम्पराएं धर्म के अनुसार नहीं होतीं। जैसे कि मूर्ति पूजा भी पूर्वजों की परम्परा है लेकिन वह धर्म सम्मत नहीं है।
मनुस्मृति स्वयं कहती है कि नियोग की परम्परा राजा वेन ने चलाई थी। वैदिक विद्वानों ने इसकी निन्दा की है-
अयं द्विजैर्हि विद्वद्भिः पशुधर्मो विगर्हितः।
मनुष्याणामापि प्रोक्तो वेने राज्यं प्रशासति।।
विज्ञ विप्रों द्वारा इस पशुधर्म की निन्दा की गई है, यह पशुधर्म राजा वेन के शासन काल से चला है।
(मनु स्मृति, 9/66, डा. चमनलाल गौतम प्रकाशकः  संस्कृति संस्थान, बरेली)
यह श्लोक बता रहा है कि नियोग ईश्वर के उपदेश से नहीं बल्कि राजा वेन के आदेश से चला है। स्वामी जी ने इस श्लोक को मनु स्मृति में क्षेपक समझकर नज़रअन्दाज़ कर दिया। वर्ण व्यवस्था की ऊँच-नीच और छूत-छात भी ऐसे ही किसी निरंकुश राजा की देन है।
स्वामी जी ने वैदिक जाति के इतिहासग्रन्थ महाभारत आदि देखे तो उनमें उन्हें नियोग करने वाले आर्य तो बहुत मिले जबकि किसी विधवा से विवाह करने वाला कोई एक भी न मिला। उन्हें मनु स्मृति (अध्याय 9) में विधवा विवाह का विरोध और नियोग का समर्थन मिला। उन्होंने समझा कि नियोग ही धर्म है। इसीलिए जिन वेदमंत्रों को वह पुनर्विवाह के अर्थ में ले सकते थे, उनसे भी उन्होंने नियोग सिद्ध करने की कोशिश की है। जबकि उनमें कहीं भी स्पष्ट रूप से नियोग शब्द नहीं है। इसी ग़लतफ़हमी के चलते उन्होंने नियोग को ईश्वर का आदेश समझ लिया और विधवा के पुनर्विवाह को पाप तथा उसके नियोग को पुण्य घोषित करने की बड़ी भारी ग़लती की।
इससे सिद्ध होता है कि वेदों को समझने और स्मृतियों के परिमार्जन के लिए केवल तर्क और अनुमान काफ़ी नहीं हैं।

¤ आर्य लोगों की दुर्दशा कैसे राजाओं के कारण हुई?
    स्वामी जी ने भारत के राजाओं को देशवासियों की दुर्दशा का कारण बताया है। उन्होंने उनकी दशा का चित्रण एक कहानी के रूप में किया है-
    ‘एक दिन बम्बई में कई हज़ार के समूह में व्याख्यान देते समय राजाओं के विनाश का वर्णन करते हुए कहा कि आजकल राजाओं के विनाश का कारण यह है कि उनके परामर्शदाता इस प्रकार के होते हैं, प्रथम ज्योतिड्ढी, दूसरे तेल वाला, तीसरा ऊंट वाला, चैथा हीजड़ा। किसी एक राजा पर जब शत्रु चढ़कर आया और दुर्ग के भीतर घुसने लगा तो उसे सूचना मिली। प्रथम ज्योतिड्ढी से पूछा उसने कहा कि अभी महाराज को भद्रा है। फिर तेल वाले से पूछा कि आप कहिये, आपकी क्या सम्मति है? उसने कहा कि शीघ्रता क्या है, आप अभी तेल देखें और तेल की धार देखें। फिर ऊंट वाले से पूछा कि आप अपनी सम्मति कहिये। उसने कहा महाराज! देखिये ऊंट किस करवट बैठता है। यह ऐसे ही परामर्श करते रहे और शत्रु भीतर घुस आया। तब हीजड़े से पूछा कि कहिये अब आपकी क्या सम्मति है? उसने कहा कि आप कनात तान लो, क्या वे पर्दे में घुस आयेंगे?
...इसके अन्त में दुःख से मेज पर हाथ रखकर कहा कि यदि हमारे राजाओं की यह दशा न होती तो हमारी यह दुर्दशा क्यों होती। देश के विनाश का कारण यही हैं।’ (महर्षि दयानन्द सरस्तवी का जीवन चरित्र, पृष्ठ 271)
    ‘इस बिगाड़ के मूल महाभारत युद्ध से पूर्व एक सहò वर्ष से प्रवृत्त हुए थे। क्योंकि उस समय में ऋषि मुनि भी थे तथापि कुछ-कुछ आलस्य, प्रमाद, ईष्र्या, द्वेड्ढ के अंकुर उगे थे वे बढ़ते बढ़ते वृद्ध हो गये।’ सत्यार्थप्रकाश,एकादशसमुल्लास, पृ.191)
लंबे काल तक देश पर ऐसे ही राजाओं ने शासन किया है। इन्हीं की अयोग्यता के कारण वैदिक समाज में ऊंच-नीच, छूत-छात, आवागमन, बहुदेववाद, मूर्तिपूजा, प्रकृतिपूजा, ग्रहपूजा, नियोग, सती प्रथा, दास प्रथा, देवदासी प्रथा, वेश्यावृत्ति, तंत्र, नरबलि, दहेज, ब्याज, नशा, अपहरण और बलात्कार आदि काम शुरू हुए और इन कर्मों से जिस उच्च वर्ग के स्वार्थ पूरे हो रहे थे, उसने इन्हें धर्म कहकर मान्यता दे दी। हिन्दू राजाओं की अयोग्यता का परिणाम यह हुआ कि शासन विधर्मी और विदेशियों के हाथ में चला गया। इससे बड़ा नुक्सान वे समाज को पहले ही पहुंचा चुके थे। वह यह था कि वे जनता के बीच अधर्म के कामों को धर्म के रूप में प्रचलित कर चुके थे। जिसे आज तक देखा जा सकता है।
    स्वामी दयानन्द जी ने देशवासियों की दुर्दशा का कारण हिन्दू राजाओं की अयोग्यता बताया है जो कि बिल्कुल सही है। ऐसे में लोगों की दुर्दशा का कारण उनके पूर्वजन्म के बुरे कर्मों को बताना स्वयं ही ग़लत सिद्ध हो जाता है। कृपया इस तथ्य पर विचार करें।
¤ कन्या पैदा करने के लिए औरत को ज़िम्मेदार समझना ग़लत है
स्वामी जी कहते हैं कि कुछ परिस्थितियों में पति पत्नी एक दूसरे की अनुमति लिए बिना भी नियोग कर सकते हैं-
‘विवाहित स्त्री जो विवाहित पति धर्म के अर्थ परदेश गया हो तो आठ वर्ष , विद्या और कीर्ति के लिये गया हो तो छः और धनादि कामना के लिये गया हो तो तीन वर्ष  तक बाट देख के, पश्चात् नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कर ले। जब विवाहित पति आवे तब नियुक्त पति छूट जावे।।1।। वैसे ही पुरुष के लिये भी नियम है कि बन्ध्या हो तो आठवें (विवाह से आठ वर्ष तक स्त्री को गर्भ न रहै), सन्तान होकर मर जायें तो दशवें, जब-जब हो तब-तब कन्या ही होवें पुत्र न हो तो ग्यारहवें वर्ष  तक और जो अप्रिय बोलने वाली हो तो सद्यः उस स्त्री को छोड़ के दूसरी स्त्री से नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कर लेवे।।2।।’
(सत्यार्थप्रकाश, चतुर्थ., पृ. 78)
स्वामी जी ने कन्या को जन्म देने के लिए औरत को ज़िम्मेदार समझकर ग़लती की है और यह कह कर भी कि जब-जब हो तब-तब कन्या ही होवें पुत्र न हो तो ग्यारहवें वर्ष तक रुक कर पुरुड्ढ किसी दूसरी स्त्री से नियोग करके पुत्र पैदा कर ले। जबकि वैज्ञानिक तथ्य यह है कि जिस ‘लश् गुणसूत्र से गर्भ में भ्रूण का लिंग निश्चित होता है। वह ‘लश् गुणसूत्र पुरुड्ढ में होता है, औरत में नहीं। उसी से वह औरत को प्राप्त होता है।
वेदों में सत्य का उपदेश मौजूद है। हम उसका सम्मान करते हैं लेकिन स्वामी जी के नियोगपरक वेदार्थ को ईश्वरीय आदेश नहीं माना जा सकता। मानव जाति के आरम्भ में पुनर्विवाह ही धर्म  था और आज भी यही है। ईश्वर ने क़ुरआन में इसी धर्म का उपदेश दिया है। ख़ुद आर्य समाज भी क़ुरआन के इसी नियम का पालन कर रहा है, न कि दयानंद जी के विचार का। स्वामी जी के वैदिक विचार (?) का पालन किया जाए तो विधवाओं के पुनर्विवाह तो होने से रहे, कुंवारे लड़के लड़कियों के विवाह भी न हो पाएंगे और जिनके विवाह हो जाएंगे, वे बच्चे पैदा न कर पाएंगे।

¤ कई अरब लड़के-लड़कियों का विवाह असंभव बनाते वैदिक नियम
   ‘किससे विवाह नहीं करना चाहिए ?’ यह बताते हुए स्वामी जी मनु स्मृति के श्लोक उद्धृत करते हुए सत्यार्थ प्रकाश, चतुर्थसमल्लास में कहते हैं कि
महान्त्यपि समृद्धानि गोऽजाविधनधान्यतः।
स्त्रीसम्बन्धे दशैतानि कुलानि परिवर्जयेत्।।1।।मनु.।।
चाहे कितने ही धन, धान्य, गाय, अजा, हाथी, घोड़े, राज्य, श्री आदि से समृद्ध ये कुल हों तो भी विवाह सम्बंध में निम्नलिखित दश कुलों का त्याग कर दे।

हीनक्रियं निष्पुरुषं निश्छन्दो रोमशार्शसम्।1।।
क्षय्यामयाव्यपस्मारिश्वित्रिकुष्ठिकुलानि च।।2।।मनु.।।
जो कुल सत्क्रिया से हीन, सत्पुरूषों से रहित, वेदाध्ययन से विमुख, शरीर पर बड़े लोम, अथवा बवासीर, क्षयी, दमा, खांसी, आमाशय, मिरगी, श्वेतकुष्ठ और गलितकुष्ठ कुलों की कन्या वा वर के साथ विवाह न होना चाहिए, क्योंकि ये सब दुर्गुण और रोग विवाह करने वाले के कुल में भी प्रविष्ट हो जाते हैं। इसलिए उत्तम कुल के लड़के और लड़कियों का आपस में विवाह होना चाहिए।2।।

नोद्वहेत्कपिलां कन्यां नाऽधिकांगी न रोगिणीम्।
नालोमिकां नातिलोमां न वाचाटान्न पिंगलाम्।।3।।मनु.।।
न पीले वर्ण वाली, न अधिकांगी अर्थात् पुरुष से लम्बी चैड़ी अधिक बलवाली, न रोगयुक्ता, न लोमरहित, न बहुत लोमवाली, न बकवाद करनेहारी और न भूरे नेत्रवाली।।3।।

नक्र्षवृक्षनदीनाम्नीं नान्त्यपर्वतनामिकाम्।
न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नीं न च भीषणनामिकाम्।।4।।मनु.।।
न ऋक्ष अर्थात अश्विनी, भरणी, रोहिणीदेई, रेवतीबाई, चित्तारी, आदि नक्षत्र नामवाली;
तुलसिया, गेंदा, गुलाब, चम्पा, चमेली आदि वृक्ष नामवाली; विन्ध्या, हिमालया, पार्वती आदि पर्वत नामवाली; कोकिला, मैना आदि पक्षी नामवाली; नागी, भुजंगा आदि सर्प नामवाली; माधोदासी, मीरादासी आदि प्रेष्य नामवाली कन्या के साथ विवाह न करना चाहिए क्योंकि ये नाम कुत्सित और अन्य पदार्थों के भी हैं।।4।।

(64) कौन सा घर ऐसा है जिसमें कोई पेट का मरीज़ न हो?
(65) पीले रंग वाली या भूरे रंग की आँख वाली लड़की या लड़के का क्या क़ुसूर है कि उसका घर न बसने दिया जाए?
(66) गुलाब, चम्पा, चमेली या पार्वती नाम में ऐसी क्या बुराई है कि इन नामों वाली लड़कियों से विवाह करने पर पाबंदी लगा दी जाए या उनसे विवाह करना अच्छा न समझा जाए?
(67) स्वामी जी ने लड़कियों के तो इतने सारे नाम और लक्षण बता दिये लेकिन लड़के का एक भी न बताया, क्या इसे लड़कियों के साथ पक्षपात न समझा जाए?
(68) अगर मनु स्मृति के इस निषेध या परामर्श को मान लिया जाए तो दुनिया के कई अरब लड़के-लड़कियों का विवाह असंभव हो जाता है। ये अरबों लड़के-लड़की अपनी शारीरिक और मनोवैज्ञानिक ज़रूरत कैसे पूरा करें?, स्वामी जी ने इसका कोई उपाय भी नहीं बताया।

¤ वैदिक धर्म का लोप क्यों हुआ?
    अरबों जवान लड़के-लड़कियों को विवाह से रोक दिया जाए तो कितना भयानक अनाचार फैल जाएगा, इसका अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। इसीलिए दुनिया ने स्वामी जी की बात पर ध्यान नहीं दिया। आर्य समाज के सदस्यों ने भी उनकी बात पर अमल नहीं किया वर्ना स्वयं उनके विवाह भी न हो पाते। वास्तव में, असंभव बातों को वैदिक धर्म के नाम पर मनवाना ही उसके ख़त्म होने का कारण बना।
इस तरह की अवैज्ञानिक और अव्यवहारिक बात वही आदमी कह सकता है जिसके अपने कोई बाल-बच्चा न हो। स्वामी जी एक सन्यासी थे। एक सन्यासी को क्या पता कि घर-गृहस्थी कैसे बसाई जाती है?, बच्चों का पालन-पोषण कैसे किया जाता है और उनका विवाह कब और कैसे किया जाए?
केवल अनुमान लगाकर और कल्पना करके इस विषय में मार्गदर्शन करना संभव नहीं है, जैसा कि स्वामी जी ने किया है। जिसे गृहस्थी का और बाल-बच्चों के पालन-पोषण का और उनके विवाह का कोई व्यवहारिक अनुभव न हो, उसे इस गंभीर विषय पर बोलने से बचना चाहिए।
इसलाम बीमारी या नाम के आधार पर इस तरह की कोई पाबंदी नहीं लगाता। यही वजह है कि इसलाम में सबका विवाह संभव है। आज आर्य समाज भी इसलाम के नियमों का पालन कर रहा है। आर्य समाजी भाई दयानंदी वैदिक विचार का पालन करते तो उनके बच्चे-बच्चियों के विवाह न हो पाते।
लोगोंे को विवाह सुख से वंचित करने वाली अव्यवहारिक बात महर्षि मनु कभी नहीं कह सकते। वैसे भी मनु स्मृति की भाषा करोड़ों वर्ष पुरानी नहीं है। इसमें गाय पालने और घी जलाने का ज़िक्र मिलता है। इसका मतलब यही है कि ये नियम तब बनाए गए जबकि मनुष्य ने जंगली गाय बकरी को पालना सीख लिया था और वह उनके दूध से घी निकालने की तकनीक भी विकसित कर चुका था। यह महज़ चंद हज़ार साल पहले की बात है न कि करोड़ों साल पहले की। बाद में ऊँच-नीच, छूत-छात और विवाह व नियोग के नियम बनाकर यह प्रचारित कर दिया कि ये नियम स्वयंभू मनु ने सिखाए हैं।

¤ स्वामी जी को क्या पता कि पति-पत्नी के संबंध क्या होते हैं?
इससे भी बड़ी ग़लती यह की गई कि प्रचारक उस विषय की भी शिक्षा देने लगे, जिस विषय का उन्हें क,ख,ग भी पता न था। इसी ग़लती को स्वामी जी जीवन भर दोहराते रहे।
स्वामी जी को क्या पता कि पति-पत्नी का अंतरंग संबंध क्या होता है और इस क्रिया को कैसे किया जाता है?,
(69) जिस चीज़ को एक आदमी ने कभी छुआ तो क्या देखा तक न हो, वह उसके साथ व्यवहार की सही शिक्षा कैसे दे सकता है ?,
इसके बावजूद स्वामी दयानंद जी पति-पत्नी को बताते हैं कि वे सहवास की परम गोपनीय क्रिया कैसे संपन्न करें?, देखिए-
‘पुरूष वीय्र्यस्थापन और स्त्री वीर्याकर्षण की जो विधि है उसी के अनुसार दोनों करें। जहां तक बने वहां तक ब्रह्मचर्य के वीय्र्य को व्यर्थ न जाने दें क्योंकि उस वीय्र्य वा रज से जो शरीर उत्पन्न होता है वह अपूर्व उत्तम सन्तान होता है। जब वीय्र्य का गर्भाशय में गिरने का समय हो उस समय स्त्री और पुरूष दोनों स्थिर और नासिका के सामने नासिका, नेत्र के सामने नेत्र अर्थात् सूधा शरीर और अत्यन्त प्रसन्नचित्त रहैं, डिगें नहीं। पुरूष अपने शरीर को ढीला छोड़े और स्त्री वीय्र्यप्राप्ति समय अपान वायु को ऊपर खींचे, योनि को ऊपर संकोच कर वीर्य का ऊपर आकर्षण करके गर्भाशय में स्थित करे। पश्चात् दोनों शुद्ध जल से स्नान करें।‘ (सत्यार्थप्रकाश, चतुर्थसमुल्लास)
स्वामी जी के बताए तरीक़े से सहवास किया जाए तो वीर्ये गर्भाशय तक न पहुंच सकेगा बल्कि बाहर ही गिर जाएगा। स्वामी जी बताते हैं कि जब वीर्य का गर्भाशय में गिरने का समय आए तो दोनों अपने शरीर के अंगों को सीधा कर लें। इस क्रिया के दौरान औरत-मर्द जैसे ही अपनी अपनी टाँगें सीधी करेंगे, लिंग गर्भाशय से दूर हो जाएगा। लिंग छोटा हुआ तो बाहर ही निकल जाएगा। पेट मोटा हुआ तो भी यही होगा।
औरत का क़द मर्द से थोड़ा छोटा होता है और कुछ मामलों में तो पत्नी का क़द अपने पति के मुक़ाबले डेढ़-दो फ़ुट तक छोटा होता है। ऐसे में पत्नी को पति की नाक के सामने अपनी नाक और उसकी आँखों के सामने अपनी आँखें लाने के लिए थोड़ा सा ऊपर को सरकना होगा। थोड़ा सा ऊपर को सरकते ही लिंग उसके गर्भाशय से और ज़्यादा दूर हो जाएगा या बाहर ही निकल जाएगा। सही बात का पता न हो तो आदमी को चुप रहना चाहिए। उसमें दख़लअंदाज़ी करना और अपनी कल्पना को वैज्ञानिक बताना लोगों के जीवन से खेलना है।

¤ बच्चे पैदा करना मुश्किल क्यों हुआ?
    बहुधा हिन्दू राजा व प्रजा अपने बल पर स्वयं का बच्चा पैदा न कर पाते थे। रामायण से लेकर महाभारत तक इतिहास में इसके अनेकों उदाहरण भरे पड़े हैं। इसका कारण यही था कि उनके गुरू उन्हें अपने अनुमान से ग़लत शिक्षा दिया करते थे। इसी ग़लत शिक्षा के कारण बहुतों को अपनी पत्नियाँ दूसरों को सौंपनी पड़ीं और उन्हें अपने घर में दूसरों के बच्चे पालने पड़े।
स्वामी दयानंद जी ने सहवास की यह विधि किसी प्राचीन आचार्य की पुस्तक से पढ़कर बताई है या फिर मात्र अपनी कल्पना से बता दी है। जैसे भी बताई है, ग़लत बताई है। इस तरीक़े से सहवास करने से वीर्य का गर्भाशय तक पहुंचना असंभव है। जिस विषय का उन्हें कोई व्यवहारिक ज्ञान नहीं था। उसमें राय देकर पति-पत्नी के लिए मुश्किलें खड़ी करने का क्या तुक है?
सहवास की यह विधि केवल बच्चा पैदा करने के लिए बताई गई है। औरत और मर्द के अपने भी कुछ जज़्बात होते हैं, उनकी संतुष्टि को इसमें पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। आगे एक और बेतुकी पाबंदी लगाते हुए कहते हैं कि
‘जब महीने भर में रजस्वला न होने से गर्भस्थिति का निश्चय हो जाय तब से एक वर्ष पय्र्यन्त स्त्री पुरूष का समागम कभी न होना चाहिए। क्योंकि ऐसा न होने से सन्तान उत्तम और पुनः दूसरा सन्तान भी वैसा ही होता है।’ (सत्यार्थप्रकाश, चतुर्थसमुल्लास, पृष्ठ सं. 63)
स्वामी जी ने आगे यह भी कहा है कि
‘जब सन्तान का जन्म हो तब स्त्री और लड़के के शरीर की रक्षा बहुत सावधानी से करे’ (सत्यार्थप्रकाश, चतुर्थसमुल्लास, पृष्ठ सं. 63)
इस तरह उन्होंने लड़के के महत्व को बढ़ा दिया और लड़की को एक अवांछनीय चीज़ बना दी। यही बातें कन्या भ्रूण हत्या और लड़कियों की उपेक्षा की मानसिकता बनाती हैं। नियोग का उद्देश्य भी स्वामी जी ने पुत्र पैदा करना ही बताया है, उन्होंने यह नहीं बताया कि किसी को कन्या पैदा करनी हो तो वह किस विधि का पालन करे?
इसी के साथ स्वामी जी ने ‘संस्कार विधि’ में यह भी निश्चित कर दिया कि बिना गर्भाधान संस्कार के पत्नी से सहवास न करे। उन्होंने समय भी निश्चित कर दिया है कि सहवास केवल रा़त्रि में ही किया जाए। जिस रात गर्भाधान संस्कार करना हो तो उस दिन हवन करे। 4 पुरोहित चारों दिशाओं में बैठें। वे आग में घी, दूध, शक्कर, भात और मोहन भोग डालकर आहुतियां दें। जो घी शेष रहे उसे लेकर वधू अपने सिर से लेकर पैर तक सारे शरीर पर मलकर नहाए। नहाने के बाद वह पति, उस के पिता, पितामह आदि, अन्य माननीय पुरुषों, पिता की माता, अन्य कुटुंबी और संबंधियों की वृद्धस्त्रियों को नमस्कार करे। तत्पश्चात पुरोहितों को भोजन कराए और सत्कारपूर्वक उन्हें विदा कराए।
जब भी अपनी पत्नी के साथ सहवास करना हो तो पहले 4 पुरोहितों को बुलाकर उनसे मंत्र पढ़वाओ और सब रिश्तेदारों को बताओ कि हम आज रात क्या करने वाले हैं?
उन सबको खिलाने पर भारी ख़र्च अलग से आएगा। इतने लोगों को बुलाना और उन्हें खिलाना हरेक आदमी के बस की बात नहीं है। इसका मतलब तो यह हुआ कि जिन करोड़ों भारतीयों की आमदनी 20 रूपये प्रतिदिन भी नहीं है, वे न तो गर्भाधान संस्कार कर पाएंगे और न ही औलाद का मुँह देख पाएंगे।
इस पूरी प्रक्रिया में औरत एक तमाशा बन कर रह जाती है। इसलिए जिन लोगों के पास रूपया पैसा भी है, वे भी गर्भाधान संस्कार नहीं करते।
सन्तान पैदा करने के लिए जो क़ुदरती तरीक़ा है। सब उसी का पालन करते हैं। इसलाम भी उसी की शिक्षा देता है। आज सनातनी और आर्य समाजी, सभी गर्भाधान संस्कार किये बिना प्राकृतिक तरीक़े से ही औलाद पैदा कर रहे हैं। सत्य अपने आप को स्वयं मनवा लेता है।

¤ वैदिक संस्कारों के बिना भी उत्तम गुणों की प्राप्ति संभव है
    एक प्रश्न के उत्तर में स्वामी जी कहते हैं-
‘देखो, मेमों अर्थात् अंग्रेज़ों की स्त्रियों को, वे भारत की स्त्रियों की अपेक्षा कितनी अधिक साहसी, विद्यावती, बुद्धिमती और सदाचारिणी होती हैं।’ (म. दयानन्द स. का जीवन चरित्र, पृष्ठ 289)
भारतीय नारियां कुछ वैदिक संस्कारों का पालन करती हैं और अंग्रेज़ औरतें किसी वैदिक संस्कार का पालन नहीं करतीं। फिर भी स्वामी जी ने उन्हें भारतीय नारियों की अपेक्षा अधिक साहसी, विद्यावती, बुद्धिमती और सदाचारिणी माना है।
ऐसा कहकर उन्होंने वैदिक संस्कारों पर स्वयं ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
(70) जब वैदिक संस्कारों के बिना अंग्रेज़ औरतें साहसी, विद्यावती, बुद्धिमती और सदाचारिणी हो सकती हैं तो फिर वैदिक संस्कारों की आवश्यकता ही क्या रह जाती है?
    इसीलिए लोगों में वैदिक संस्कारों के पालन की रुचि ख़त्म हो चुकी है।

¤ वैदिक संस्कारों का ख़ात्मा
वैदिक धर्म में 16 संस्कारों का पालन अनिवार्य माना जाता है-
    1. गर्भाधान 2. सीमन्तोन्नयन 3. जातकर्म 4. नामकरण 5. निष्क्रमण 6. अन्नप्राशन 7. चूड़ाकर्म 8. कणवेध 9. उपनयन 10. वेदारम्भ 11. समावर्तन 12. विवाह 13. गृहाश्रम 14. वानप्रस्थ 15. संन्यास और 16. अन्त्येष्टि
स्वामी दयानंद जी ने भी इनके पालन पर ज़ोर दिया है। गर्भाधान संस्कार को पहले नंबर पर रखा गया है। इस समेत 10 संस्कारों को हिन्दू समाज सैकड़ों वर्ष पहले ही छोड़ चुका था। बाक़ी बचे हुए संस्कारों का भी रूप बदल चुका है। स्वामी जी का मानना था कि
‘संस्कारों का मूल गर्भाधान है और गर्भाधान पुरुष-स्त्री के पूर्ण ब्रह्मचर्य के बिना हो नहीं सकता। इसलिए संस्कारों की प्रणाली को पुनः प्रचलित करने के लिए हमें ब्रह्मचर्य की दृढ़ नींव डालनी चाहिए।’ (म. दयानन्द स. का जीवन चरित्र, पृष्ठ 922)

¤ वैदिक संस्कारों को पुनः प्रचलित करने में असफल
स्वामी दयानंद जी हिन्दू समाज में गर्भाधान आदि 16 संस्कारों को फिर से रिवाज देने में असफल रहे। वह आर्य समाज के सदस्यों से भी 16 संस्कारों का विधिवत पालन न करा सके। आज भी आर्य समाज के सदस्य 16 संस्कारों का पालन नहीं करते। वे अपने बच्चों को वैदिक गुरूकुल में पढ़ाने के बजाय कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ाते हैं। जहां ब्रह्मचर्य की रक्षा नहीं हो पाती। वहां लड़के लड़कियां सब एक साथ पढ़ते हैं। स्वामी जी के नाम पर बनने वाले दयानन्द एंग्लो-वैदिक कॉलिजों तक में यही व्यवस्था है। जबकि स्वामी जी बताते हैं कि लड़के लड़कियों की पाठशालाएं एक दूसरे से दो कोस दूर होनी चाहिएं। लड़कों की पाठशाला में शिक्षक व अन्य कर्मचारी सब पुरुष होने चाहिएं और लड़कियों की पाठशाला में महिलाएं।
‘स्त्रियों की पाठशाला में पांच वर्ष का लड़का और पुरुषों की पाठशाला में पांच वर्ष की लड़की भी न जाने पावे। अर्थात् जब तक वे ब्रह्मचारी वा ब्रह्मचारिणी रहैं तब तक स्त्री वा पुरुष का दर्शन, स्पर्शन, एकान्तसेवन, भाषण, विषयकथा, परस्परक्रीड़ा, विषय का ध्यान और संग इन आठ प्रकार के मैथुनों से दूर रहें’ (सत्यार्थप्रकाश, तृतीय. पृष्‍ठ 26)
कोई भी आर्य समाजी इस वैदिक नियम का पालन नहीं कर सकता। स्वयं स्वामी दयानंद जी भी नहीं कर पाए।
(71) जिन नियमों का पालन समाज न कर पाए या उन्हें बनाने वाला स्वयं भी न कर पाए, ऐसे कठोर नियम बनाने से क्या फ़ायदा?
स्वामी जी ने स्त्री के लिए पुरुष का और पुरुष के लिए स्त्री का देखना और उससे बात करना तक ब्रह्मचर्य का टूटना माना है। इन्हें भी स्वामी जी ने एक प्रकार का मैथुन माना है। उन्होंने विषयकथा और विषय के ध्यान को भी मैथुन का ही एक प्रकार माना है।

¤ ब्रह्मचर्य की रक्षा कैसे संभव है?
स्वामी जी की जीवनी में उनके द्वारा मैडम ब्लैवट्स्की समेत अनेक औरतों को देखना व उनसे बात करना दर्ज है। उन्होंने संभोग विषय का अच्छी तरह ध्यान भी किया और सत्यार्थप्रकाश, संस्कारविधि और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि अपनी पुस्तकों में उसका विस्तार से कथन भी किया है।
(72) क्या इस प्रकार स्वामी जी ने 4 प्रकार का मैथुन करके अपना ब्रह्मचर्य स्वयं ही नष्ट नहीं कर लिया?
(73) वैदिक पाठशालाओं में आर्य बालक बालिकाएं भी स्वामी जी की पुस्तकों को पढ़ते हैं तो क्या उनका ब्रह्मचर्य नष्ट नहीं हो जाता?

¤ विवाह संस्कार का ख़ात्मा
यह सत्य है कि स्वामी जी के आने तक विवाह संस्कार बचा हुआ था। आर्यबंधु इसे भी बचाकर न रख सके। स्वामी जी के आने के बाद वे अपने संस्कारों के पालन में उन्नति तो क्या करते, इसके विपरीत उन्होंने बाक़ी बचे हुए विवाह संस्कार को भी ध्वस्त कर दिया।
वैदिक धर्म में पहले विवाह भी एक संस्कार हुआ करता था। हालाँकि आज भी सनातनी और आर्य समाजी विवाह को संस्कार कह देते हैं लेकिन जब से पत्नी को तलाक़ और पुनर्विवाह का अधिकार मिला है, तब से विवाह संस्कार न रहा बल्कि वह इसलामी निकाह की तरह एक क़रार हो गया जो कि तलाक़ और मौत से टूट सकता है। जब विवाह एक संस्कार हुआ करता था तब पत्नी न तो अपने पति से तलाक़ ले सकती थी और न ही उसकी मौत के बाद पुनर्विवाह कर सकती थी।
आर्य महिला के लिए तलाक़ और पुनर्विवाह के लिए आन्दोलन चलाने वाले सनातनी हिन्दुओं के साथ आर्य समाजी भाई भी थे।
(74) उन्होंने अपने संस्कार को ख़ुद ही ध्वस्त करके विवाह को निकाह जैसा क्यों बना लिया?,
केवल इसलिए कि समस्या का वास्तविक हल विवाह संस्कार में संभव नहीं है बल्कि विवाह संस्कार औरतों के लिए कष्टकारी है। इसीलिए विवाह संस्कार को सर्वसम्मति से समाप्त कर दिया गया। इस तरह वैदिक समाज मनु स्मृति की व्यवस्था से दूर और इसलाम के क़रीब हो गया।
(75) इसे वैदिक धर्म की सेवा कहा जाएगा या कि इसलाम की ?

¤ मृतक को जलाने की शुरूआत कैसे हुई?
वैदिक धर्मियों ने विवाह संस्कार में जो बदलाव किए हैं, वे आज सबके सामने हैं। इसी प्रकार इन्होंने बहुत पहले अंतिम संस्कार की क्रिया को भी बदला है। आरंभ में मृतकों को ज़मीन में दफ़ना कर अंतिम संस्कार किया जाता था लेकिन बाद में जब युद्धों में बड़ी संख्या में मनुष्य मारे गए तो मृतकों को जलाना भी शुरू कर दिया ताकि लाशें सड़कर बीमारियां न फैलाएं। आज हिन्दू समाज में दोनों तरीक़े प्रचलित हैं। वैदिक आचार्य वेदों में दोनों तरीक़े पाते हैं। कोई न जाने या न माने तो बात अलग है। इसलाम में केवल एक ही तरीक़ा पाया जाता है और वह है मुर्दों को दफ़न करना।
    ‘‘युद्ध में जब अनेक लोग मारे जाते हैं तब इन सैकड़ों मृत देहों की योग्य तथा अहानिकारक रीति से व्यवस्था करना, एक समस्या बन जाती है। आरम्भ में मनुष्य मरने पर उसका देह कहीं भी दूर ले जाकर रख देते थे। इसे ‘परावपन’ कहते। बिल्कुल पहले युग में यही मार्ग लोगों को सूझा। परन्तु उस मृत देह की गीधों या श्वापदों द्वारा की हुई बुरी दशा देखकर उन्होंने गाड़ने की विधि निकाली, जो ‘निखनन’ कहलाया गया। प्रेत गाड़े जाते और उस स्थान के ऊपर एक प्रस्तर रखा जाता। किन्तु लड़ाई में मारे गये सैकड़ों हजारों मृत लोगों के देहों की इस प्रकार व्यवस्था करना सुलभ भी न था। वैशाली के से छोटे देश में इस कार्य के लिए रखा हुआ स्थान सीमित था और उससे अधिक भूमि इस काम के लिए देना संभव न था क्योंकि वैसा करने से कृड्ढि योग्य भूमि कम होने वाली थी। सारी ही बातें ध्यान में रख वैशाली के दो पुरोहित अंगिरस और विवस्वान् ने खूब विचार किया और उनके मन में अग्निदाह संस्कार की कल्पना प्रकट हुई। विवस्वत् पुत्र यम ने इसलिए यम, पितर इत्यादि देवताओं की कल्पना निकाली और उसी के नाम पर से यह पौराणिक कल्पना प्रसृत हुई कि मृत्यु के देवता यमदेव विवस्वान् (सूर्य) के पुत्र थे। प्रेतों का अग्निसंस्कार क्रूर कर्म नहीं अपितु एक प्रकार का यज्ञ है, इस कल्पना को रूढ़ करने में, अंगिरस पुत्र अथर्वन् ने भी खूब सहायता दी। इस यज्ञ को ‘पितृमेध यज्ञ’ नामक प्रतिष्ठित संज्ञा इसी ने मिला दी।’’ (ऋग्वेद का सूक्त विकास, पृष्ठ 70 व 71)

¤ मृतक को दफ़न करना ही अंतिम संस्कार का सही तरीक़ा है
अग्नि की खोज से पहले लोगों के लिए मृतकों का दाह संस्कार करना असंभव था। इसलिए यह आसानी से समझा जा सकता है कि अग्नि की खोज से पहले मृतकों का अंतिम संस्कार उन्हें दफ़ना कर ही किया जाता था। जिसे अग्नि की खोज के बाद हालात और ज़रूरत की वजह से बदल दिया गया, जैसे कि आज विवाह संस्कार को बदल दिया गया है।
जंगलों के ख़ात्मे की वजह से आने वाले समय में चिता जलाना संभव नहीं रह जाएगा। ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण इलेक्ट्रिक हीटर से भी मुर्दे को फूंकना पर्यावरण को नुक़्सान पहुंचाता है। ले देकर मृतकों को दफ़नाना ही उनके अंतिम संस्कार का एकमात्र तरीक़ा बचेगा।
    वैसे भी आज सही वैदिक विधान से मुर्दे को जलाना संभव नहीं है क्योंकि यह बहुत महंगा है। केंसर का उत्पादन इतना नहीं होता कि हर इन्सान ख़रीदना चाहे तो ख़रीद ले। हर इन्सान के हिस्से में एक सेर केंसर नहीं आ सकता। कस्तूरी पाने के लिए हिरनों का शिकार इतना हुआ कि अब वे लुप्त प्रायः हैं। सो हर इन्सान के लिए कस्तूरी मिलना भी संभव नहीं है।
    महर्षि दयानन्द सरस्तवी का जीवन चरित्र, पृष्ठ 831 पर बताया गया है कि दो मन (80 किग्रा.) चन्दन, दस मन (400 किग्रा.) पीपल की लकड़ी, चार मन (160 किग्रा.) घी, पांच सेर कपूर, एक सेर केसर, दो तोला कस्तूरी आदि सामग्री स्वामी जी की चिता को जलाने में ख़र्च की गई।
उनकी चिता के ख़र्चे को आज जोड़ा जाए तो लगभग 9 लाख रुपये बैठता है। स्वामी जी ने ‘संस्कारविधि’ में हरेक मृतक को इतनी सामग्री के साथ जलाना ही वैदिक संस्कार बताया है।
(76) इतना ख़र्च कौन वहन कर सकता है ?
    जिनके पास धन है। उनके क़स्बों और नगरों में भी 80 किलोग्राम चन्दन और एक सेर केसर का इन्तेज़ाम हर समय नहीं होता। राजा, महाराजाओं और प्रधानमंत्रियों को जलाने के लिए भी इन चीज़ों की व्यवस्था विशेष रूप से की जाती है। क़स्बों से दूर के गांव देहात में इन चीज़ों की व्यवस्था करना तो दूर, 160 किलोग्राम शुद्ध देशी घी जुटाना ही मुश्किल है।

¤ भीख मांगने पर मजबूर कर सकता है दाह संस्कार
     स्वामी जी के वैदिक संस्कारों का पालन केवल राजा महाराजा और गिने चुने पूंजीपति ही कर सकते हैं, जन सामान्य नहीं। ग़रीब आदमी तो लकड़ी और मिट्टी का तेल ख़रीदने में ही क़र्ज़दार हो जाता है। इस समाज में ग़रीबी इतनी है कि बहुतों को ये चीज़ें उधार भी नहीं मिल पातीं। वे अपने प्रियजनों की लाशें किसी नदी में फेंकने पर मजबूर होते हैं। एक तरफ़ जल को प्रदूषण से बचाने के लिए सरकार ने नदियों में लाशें फेंकने पर क़ानूनी प्रतिबंध लगा दिया है और दूसरी तरफ़ स्वामी जी कह रहे हैं-
    ‘और जो दरिद्र हो तो बीस सेर से कम घी चिता में न डाले, चाहे भीख मांगने वा जाति वाले देने अथवा राज से मिलने से प्राप्त हो परन्तु उसी प्रकार दाह करे।’ (सत्यार्थप्रकाश, त्रयोदशसमुल्लास, पृष्ठ 330)
    ऐसे में एक बेचारा ग़रीब आदमी मृतक का अंतिम संस्कार कैसे करे?
ऐसी ख़बरें भी आई हैं कि वृन्दावन में अनाथ विधवाओं के ्यवों को स्वीपर ने छोटे छोटे टुकड़ों में काटकर जूट की थैलियों में भरा और उन्हें ऐसे ही कहीं फेंक दिया। वे यह सब कभी न करते, अगर उन्हें पता होता कि अंतिम संस्कार का सही तरीक़ा मृतक को भूमि में गाड़ना है। भारतीय सन्यासियों में यह रीति आज तक प्रचलित है। दो सन्यासियों ने स्वामी जी के शव को भूमि में गाड़ने का आग्रह किया भी था।
¤ दफ़नाना सहीः दो संन्यासियों की गवाही
  
‘उनके परलोकगमन का समाचार सुनकर दो संन्यासी वहां आये और कहने लगे कि हम तुम को महाराज का शरीर जलाने नहीं देंगे। प्रत्युत गाड़ेंगे जैसी कि वर्तमान अवस्था में संन्यासियों की प्रथा बन रही है परन्तु सामाजिक पुरूषों ने कहा कि महाराज ऐसी बातों को पहले से ही विचार कर अपना वसीयतनामा लिख चुके हैं; उसके अनुसार ही किया जायेगा। सारांश यह कि उन संन्यासियों ने बहुत जोर मारा और कहा कि चाहे महाराज हमारे विरोधी ही थे परन्तु फिर भी हमारे ही थे। यदि हमारी मंडली होती तो हम बलात् छीन ले जाते परन्तु क्या करें, हम केवल दो मनुष्य हैं।’ (महर्षि दयानन्द सरस्तवी का जीवन चरित्र, पृष्ठ 830)
    लोग चाहें या न चाहें लेकिन परिस्थितियां उन्हें दफ़नाने के तरीक़े पर लौटने के लिए मजबूर कर रही हैं।

¤ दफ़नाना सहीः वेद की गवाही
    उच्छ्व॰चस्व पृथिवी मा नि बाधथाः सूपायनास्मै भव सूपव॰चना।
    माता पुत्रं यथा सिचाऽभ्येनं भूम ऊणुर्हि।।11।। -ऋग्वेद 10,19,11
    हे पृथिवी! मृतक को सन्ताप से बचाने के लिए ऊँचा करो। तुम इसकी परिचर्या करने वाली बनो। जैसे माता अपने पुत्र को ढकती है, वैसे ही इस कंकाल रूप मृत को तुम अपने तेज से ढक दो। (अनुवादः पं. श्रीराम शर्मा आचार्य)

¤ क्या कोई मूर्ख व्यक्ति चतुर और निपुण हो सकता है?
   स्वामी जी ने शूद्रों के पढ़ने के अधिकार को मानकर उन्हें थोड़ी बहुत राहत पहुंचाई है। यह सही है लेकिन फिर भी उन्हें अन्य वर्णों से नीच ही माना है। दयानन्द जी ‘शूद्र’ और उसके कार्य को लेकर भी भ्रमित हैं। उदाहरणार्थ - सत्यार्थप्रकाश, पृष्‍ठ 50 पर ‘निर्बुद्धि और मूर्ख का नाम शूद्र’ बताते हैं और पृष्‍ठ 73 पर ‘शूद्र को सब सेवाओं में चतुर, पाक विद्या में निपुण’ भी बताते हैं।
(77) क्या कोई मूर्ख व्यक्ति, चतुर और निपुण हो सकता है? क्या बुद्धि और कला कौशल से युक्त होते ही उसका ‘वर्ण’ नहीं बदल जायेगा?
(78) क्या ऊंचनीच को मानते हुए भेदभाव रहित प्रेमपूर्ण, समरस और उन्नति के समान अवसर देने वाला समाज बना पाना संभव है?

¤ बच्चों को शिक्षा देने में भेदभाव नहीं करना चाहिए
    ‘6 वर्ष से 8वें वर्ष तक पिता शिक्षा करें और 9वें वर्ष के आरम्भ में द्विज अपने सन्तानों का उपनयन करके आर्यकुल में अर्थात् जहां पूर्ण विद्वान और पूर्ण विदुषी स्त्री शिक्षा और विद्यादान करने वाली हों वहां लड़के और लड़कियों को भेज दें और शूद्रादि वर्ण उपनयन किये बिना विद्याभ्यास के लिए गुरूकुल में भेज दें।’ (सत्यार्थप्रकाश, द्वितीय. पृष्‍ठ 27)
    बच्चों के कोमल मन में ऊँच-नीच और भेदभाव का ज़हर भर देना बहुत बड़ा अपराध है। हज़ारों वर्ष तक वैदिक गुरूकुलों में यही किया गया। जिसके नतीजे में भारतीय समाज में अन्याय और शोषण का बोलबाला हुआ, समाज कमज़ोर हुआ और देश विदेशियों का ग़ुलाम बना। उसी भयानक ग़लती को दोहराते रहने की शिक्षा देना, देश और मानवता के साथ दुश्मनी करना है।
(79) अगर बचपन में ही ऊँच-नीच की दीवारें खड़ी कर दी जायेंगी तो बड़े होकर तो ये दीवारें और भी ज्यादा ऊंची हो जायेंगी, फिर समाज उन्नति कैसे करेगा?
(80) 8 वर्ष की अवस्था के बच्चे को देखकर यह फ़ैसला कैसे किया जाएगा कि वह ब्राह्मण है, क्षत्रिय है, वैश्य है या शूद्र है ?
अगर स्वामी जी मासूम बच्चों को बिना किसी कर्म के ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में बाँटते हैं तो इसका मतलब, वह उनके माता पिता के वर्ण को ही उनके बच्चों का वर्ण स्वीकार करते हैं। ऐसे में यह कहना कि हम वर्ण का आधार कर्म को मानते हैं, केवल शब्दजाल रचना और दूसरों को धोखा देना है।
यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि मनोवैज्ञानिकों के अनुसार जिन बच्चों को बचपन और किशोर वय में मां-बाप का पूरा प्यार और ध्यान नहीं मिलता, उनके अंदर बहुत से मनो-विकार पैदा हो जाते हैं और वे अधूरा और बीमार व्यक्तित्व लेकर बड़े होते हैं। मां-बाप और परिजनों का प्रेम बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण में बहुत अहम भूमिका निभाता है। इसलिए मां-बाप और परिजनों के वात्सल्य से वंचित किए बिना बच्चों की शिक्षा का प्रबंध करना चाहिए।

¤ स्वामी जी वर्ण का आधार जन्म को ही मानते थे
स्वामी जी अपनी पुस्तक ‘संस्कार विधि’ में बताते हैं कि गोद के बच्चों के नाम रखते समय भी उनके ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होने का पूरा ध्यान रखना चाहिए। वह लिखते हैं-
‘‘नामकरण का काल जिस दिन जन्म हो, उस दिन से ले के 10 दिन छोड़ 11वें व 101 (एक सौ एक) में अथवा दूसरे वर्ष के आरंभ में, जिस दिन जन्म हुआ हो, नाम धरे’’ (संस्कार विधि, पृष्ठ 63)
    ‘‘देव अथवा जयदेव ब्राह्मण हो तो देव शर्मा, क्षत्रिय हो तो देव वर्मा, वैश्य हो तो देव गुप्त और शूद्र हो तो देव दास इत्यादि...बालक का नाम धर के पुनः ‘ओं कोसि.’ ऊपर लिखित मंत्र बोलना.’’ (संस्कार विधि, पृष्ठ 66)
स्वामी दयानंद जी जन्म के आधार पर भेदभाव करना परम धर्म मानते थे। इसलाम इसे ज़ुल्म और अज्ञानता मानता है। इसलाम के भारत में आने के बाद इस तरह की ज़ुल्म ज़्यादती में काफ़ी कमी आ चुकी थी। रायपुर में हरि सिंह जी द्वारा शेख़ ईलाहीबख्श को अपना मंत्री बनाना इसका उदाहरण है लेकिन स्वामी जी मुसलमानों से सही बात तो क्या सीखते, उल्टा उन्होंने उनका भी वर्ण जन्म के आधार पर निश्चित कर दिया। उन्होंने मुसलमानों को दासी पुत्र बताकर हरि सिंह से ईलाही बख़्श को मंत्री पद से हटाने के लिए कहा था। इस तरह उनकी मान्यता की पुष्टि उनके आचरण से भी हो जाती है और किसी लीपा पोती की कोई गुंजाइश शेष नहीं रहती।
स्वामी दयानंद जी समाज सुधारक नहीं थे बल्कि वह वर्ण व्यवस्था के रक्षक थे और वर्ण व्यवस्था की रक्षा वह कर न पाए। आज भारत में इस तरह के भेदभाव पर क़ानूनी रूप से प्रतिबंध है जो कि प्रचलित वैदिक धर्म के खि़लाफ़ है और इसलाम के अनुकूल है।

¤ मनु के नाम पर भेदभाव मत फैलाओ
    स्त्रियों की साक्षी स्त्री, द्विजों के द्विज, शूद्रों के शूद्र और अन्त्यजों के अन्त्यज साक्षी हों ।। 2 ।। जितने बलात्कार काम चोरी, व्यभिचार, कठोर वचन, दण्डनिपातन रूप अपराध हैं उनमें साक्षी की परीक्षा न करे और आवश्यक भी समझे क्योंकि ये काम सब गुप्त होते हैं ।। 3।। (सत्यार्थ प्रकाश, षष्ठम, 110)
गवाह की सच्चाई को परखे बिना ही आरोपी व्यक्ति को मृत्युदण्ड आदि कठोर सज़ा देना सरासर अन्याय है बल्कि इस तरह तो मामूली सज़ा देना भी उचित नहीं है। न्यायकारी व्यक्ति के लिए यह उचित नहीं है कि वह लिंग-भेद या वर्ण-भेद से काम ले। हरेक को आज़ादी होनी चाहिए कि वह अपनी सच्चाई का गवाह जिस वर्ग से लाना चाहे, ले आये।
इस तरह की बातें जब वेद और महर्षि मनु के नाम पर फैलायी जाती हैं तो समाज मे असन्तोष और आक्रोश पैदा होता है और लोग उनकी निन्दा करके धर्म से दूर हो जाते हैं। महर्षि मनु तो मानव जाति के पिता हैं।
(81) क्या कोई पिता अपने बच्चों में ऊँच-नीच की बातें पैदा करके उनका अहित करता है?
नहीं, बल्कि बाप की स्नेहदृष्टि अपने बच्चों में सबसे ज़्यादा उस पर होती है जो सबसे ज़्यादा कमज़ोर होता है। जो ख़ुद किसी का बाप न हो वह कैसे जान सकता है कि एक बाप अपने बच्चों को किस तरह रहना सिखाता है?

¤ बिना विचारे मौत की सज़ा देना ठीक कैसे?
    चाहे गुरू हो, चाहे पुत्रादि बालक हों, चाहे पिता आदि वृद्ध, चाहे ब्राह्मण और बहुत शास्त्रों का श्रोता क्यों न हो जो धर्म को छोड़ अधर्म में वत्र्तमान, दूसरे को बिना अपराध मारने वाले हैं, उनको बिना विचारे मार डालना अर्थात् मारके पश्चात् विचार करना चाहिये।।10।। ( सत्यार्थ प्रकाश, षष्ठम, 113)
इस तरह की बातें करने वाला व्यक्ति लोगों को इ्र्रश्वर और धर्म से दूर करता है। महर्षि मनु के विषय में इस तरह की अवैज्ञानिक और अन्यायपूर्ण बातें वही कह सकता है, जिसे महर्षि मनु के विषय में कुछ भी पता न हो कि वह कौन थे और उनका धर्म क्या था?

¤ हवन सांस लेने की तरह अनिवार्य
    यही कारण है कि स्वामी दयानंद जी ने हरेक आदमी पर हवन जैसे कर्मकांड करना अनिवार्य कर दिया, जिन्हें करने के लिए बहुत सा धन और समय चाहिए। इसे करने के लिए अच्छी सेहत भी ज़रूरी है। कई बार आदमी बीमार भी होता है। बीमार आदमी सांस तो ले सकता है लेकिन हवन नहीं कर सकता। स्वामी जी भी बीमार पड़े तो हवन नहीं कर पाए। इसलिए हवन करने को सांस लेने की तरह अनिवार्य घोड्ढित करना बहुत बड़ी ग़लती है। स्वामी जी मनुस्मृति के श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते हैं-
‘नित्यकर्म में अनध्याय नहीं होता। जैसे श्वास-प्रश्वास सदा लिये जाते हैं बन्द नहीं किये जाते वैसे नित्यकर्म प्रतिदिन करना चाहिए, न किसी दिन छोड़ना क्योंकि अनध्याय में भी अग्निहोत्रादि उत्तम कर्म किया हुआ पुण्यरूप होता है।’ (सत्यार्थ प्रकाश, तृतीयसमुल्लास, पृ.34)
आज भारत में ही 84 करोड़ लोग 20 रुपये प्रतिदिन भी  कमा पाते। जिन लोगों के पास धन का ढेर लगा हुआ है, उनके पास समय का अभाव है। आज के व्यस्त जीवन में समय का अभाव एक आम समस्या है।
स्वामी जी के अनुसार हरेक मनुष्य को सुबह और शाम सोलह-सोलह कुल 32 आहुतियाँ देना अनिवार्य है। एक आहुति में कम से कम 6 माशे शुद्ध देशी घी होना चाहिए, घी ज़्यादा चाहे जितना हो परंतु 6 माशे से कम न हो। अगर एक परिवार में 10 आदमी हों तो एक दिन में कुल 320 आहुतियाँ देनी होंगी और इसमें लगभग 2 किलोग्राम शुद्ध देशी घी लगेगा जो कि 800 रूपये मूल्य का होगा। एक महीने में केवल घी का ख़र्च 24,000 रुपये बैठ रहा है। केसर-चंदन आदि सामग्री और आम व पलाश की लकड़ी का ख़र्च जोड़ें तो यज्ञ की मासिक लागत 50,000 रुपये से ऊपर पड़ती है। हर परिवार की इतनी आमदनी न पहले थी और न आज है।
(82) ऐसे में समाज का हरेक नर नारी सुबह शाम हवन कैसे कर सकता है?
यदि स्वामी जी का सपना ‘कृण्वंतो विश्मार्यम्’ साकार हो जाता अर्थात सारा विश्व आर्य बन जाता तो पूरे विश्व की 7 अरब की आबादी यज्ञ करती। इस मद में एक ही वर्ष में 35,000000000000 रुपये अर्थात पैंतीस सौ अरब रुपये ख़र्च हो जाते और दुनिया का सारा घी महीने भर में ही धुआँ हो जाता। जंगल पहले ही कम थे। बचे हुए पेड़ भी महीने भर में ही कट जाते। पेड़ों का संपूर्ण नाश मनुष्य जाति के महाविनाश के रूप में सामने आता। धन तो जाता ही, जन भी जाता और जीवन भी जा चुका होता।
इ्र्रश्वर का धन्यवाद, कि उनका सपना साकार नहीं हुआ। लेकिन आज भी कुछ लोग उनके सपने को पूरा करने का सपना देखते हैं और वे कभी कभी यज्ञ-हवन भी कर लेते हैं।
काश ! वे जानते कि अग्नि की खोज से पहले धर्म में हवन नहीं था। तब यज्ञ केवल ईशवाणी के पाठ, प्रार्थना, ध्यान और नमन के द्वारा ही संपन्न होता था जैसे कि नमाज़ में आज भी केवल यही सब है, हवन नहीं है, कोई ख़र्च नहीं है। नमाज़ से मानव जाति को कोई ख़तरा नहीं है, केवल लाभ ही लाभ है।

¤ शूद्र कौन ?
    ‘(पद्भ्याँ शूद्रो.) जैसे पग सबसे नीच अंग हैं, वैसे मूर्खता आदि नीच गुणों से शूद्र वर्ण सिद्ध होता है।’ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पृष्ठ 92)

¤ हवन न करने वाले शूद्र्वत् हैं
स्वामी जी कहते हैं कि
‘इसलिए दिन और रात्रि के सन्धि में अर्थात् सूर्योदय और अस्त समय में परमेश्वर का ध्यान और अग्निहोत्र अवश्य करना चाहिए।।3।। और जो ये दोनों काम सायं और प्रातःकाल में न करे उसको सज्जन लोग सब द्विजों के कर्मों से बाहर निकाल देवें अर्थात् उसे शूद्रवत् समझें।।4।।
(सत्यार्थ प्रकाश, चतुर्थसमुल्लास, पृष्ठ सं. 65)
दूसरे तो दोनों समय हवन क्या करते, स्वयं आर्य समाज के सदस्य ही दोनों समय हवन नहीं कर पाते जबकि घी, चंदन और लकड़ी का सारा ख़र्च भी संस्था की ओर से ही किया जाता है। इस कठोर नियम का नतीजा यह हुआ कि स्वामी जी किसी को कर्मणा ब्राह्मण आदि तो क्या बनाते, अपने आर्य समाज के सदस्यों को ही शूद्र बना दिया।
अंतकाल में ख़ुद उनका भी हवन छूट गया था।
(83) क्या वह शूद्र बनकर मरे, ऐसा मानना ठीक रहेगा?
(84) जब सारा समाज ही शूद्रवत् हो जाए तो उसे द्विजों के कर्म से बाहर कौन निकाले?
सो आज आर्य समाज को यही लोग चला रहे हैं जिन्हें स्वामी दयानंद जी ने शूद्रवत् ठहराया है।
आर्य समाजी होने का अर्थ आज स्वामी दयानंद जी के बताए वैदिक नियमों का पालन करना नहीं रहा बल्कि दूसरों की मान्यताओं का मज़ाक़ उड़ाना भर रह गया है। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर वे दूसरों का मज़ाक़ उड़ाते  रहते हैं कि देखो, स्वामी जी ने इसे यह कह दिया, उसे वह कह दिया और उन्हें अपना पता नहीं है कि स्वामी जी तुम्हें शूद्रवत् घोषित करके गए हैं।
जब दिल से ईश्वर, धर्म और सत्य की चाह निकल जाए तो व्यक्ति और समाज ऐसा ही बनकर रह जाता है।
धर्म ऐसा हरगिज़ नहीं हो सकता कि धर्म में श्रद्धा रखने वाले उस पर चलना चाहें तो चल न सकें। धर्म को ऐसा होना चाहिए, जिस पर समाज चलना चाहे तो चल सके और वास्तव में धर्म ऐसा ही है। ईश्वर ने मनुष्यों पर अपार दया की है जो कि उन पर नमाज़ अनिवार्य की। इसे अमीर-ग़रीब, औरत-मर्द-बच्चे, पहलवान और बीमार सब कर सकते हैं। नमाज़ में ईश्वर का ध्यान है, उससे प्रार्थना है और उसकी वाणी का पढ़ना और सुनना है। अन्न, फल, घी और लकड़ी फूंकने का कोई ख़र्च इसमें सिरे से है ही नहीं।
(85) भुखमरी और कुपोषण से जूझते हुए भारत में खाने-पीने की चीजे़ जलाने की सलाह कौन सा वैज्ञानिक दे सकता है ?

¤ हवन से नमन की ओर आ चुका है समाज
   सच यह है कि हवन से वायु शुद्ध नहीं होती। मनुष्य वातावरण से ऑक्सीजन लेकर कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ता है। यह कार्बन डाई ऑक्साइड हवन में सामग्री और लकड़ी जलाने से ऑक्सीजन नहीं बन जाती। वास्तव में पेड़ वायु को शुद्ध करते हैं। पेड़ कार्बन डाई ऑक्साइड लेकर ऑक्सीजन छोड़ते हैं, जिस पर हमारा जीवन निर्भर है। इसलिए जगह जगह पेड़ लगाने चाहिएं। सुगंध के लिए फूल वाले पौधे और लताएं भी लगाई जा सकती है।
हवन के लिए पेड़ काटने पड़ते हैं, जो कि वायु शुद्ध करते हैं। इस तरह हवन से न केवल वायु शुद्ध नहीं होती बल्कि उल्टा वायु को शुद्ध करने वाले पेड़ों का विनाश होता है। स्वयं से सूख कर गिरी हुई लकड़ियां इतनी नहीं होतीं कि वे सबके लिए पर्याप्त हो जाएं।
हवन करने से कार्बन पैदा होता है जो कि वायु को और ज़्यादा प्रदूषित करता है। इसी के साथ ताप भी पैदा होता है जो कि ग्लोबल वॉर्मिंग को बढ़ाता है।
धुएं में कार्बन डाई ऑक्साईड और कार्बन मोनो ऑक्साईड जैसी ज़हरीली गैसें भी होती हैं। दोनों ही इंसानों, जानवरों और परिन्दों के लिए घातक होती हैं। ओज़ोन परत, जो कि धरती पर जीवन रक्षा का एक मज़बूत कवच है, इसे भी कार्बन मोनो ऑसाईड भारी नुक्सान पहुंचाती है।
नमाज़ इन सब समस्याओं का समाधान है।

¤ हवन की सामग्री देवताओं का भोजन?
    स्वामी जी ने हवन से वायु शुद्ध होने की बात कहकर वैदिक परम्परा को विज्ञान का मुखौटा पहनाने की कोशिश की है। वर्ना हक़ीक़त यह है कि सनातनी पंडित हवन की अग्नि में डाली गई सामग्री को देवताओं द्वारा खाना मानते हैं।स्वयं स्वयं दयानन्द जी भी यही मानते थे-
    ‘श्रेष्ठ पदार्थों का हवन करना चाहिए-इन दिनों सम्भवतः 20-22 दिन रहे थे। जो लोग हवन में जौ डालते थे उनको स्वामी जी कहते थे कि जौ तो पशुओं का भोजन है, स्वयं तो यह लोग पूरी खाते हैं और देवताओं को जौ खिलाते हैं जो अमृत के पीने वाले हैं! इसलिए श्रेष्ठ पदार्थों का हवन चाहिए।’ (महर्षि दयानन्द सरस्तवी का जीवन चरित्र, पृष्ठ 125)

¤ अन्य धर्मग्रन्थों की समीक्षा की निरर्थक चेष्‍टा
   (86) जिस ज्ञान को, वैदिक साहित्य को स्वामी जी ने जीवन भर पठन पाठन में रखा और स्वयं को उसका विशेषज्ञ घोषित कर दिया, जब वह उसी को नहीं समझ पाए तो अन्य धर्मो के जिन ग्रन्थों की मूल भाषा का ज्ञान तक उन्हें नहीं था और जहाँ तहाँ से अनुवाद देखकर जल्दबाज़ी में उनकी समीक्षा कर डाली तो क्या वह सारी समीक्षाएँ स्वयं ही व्यर्थ होकर निरस्त नहीं हो जातीं?
जो बात उन्होंने जैन आदि के साहित्य के विषय में कही है, वह स्वयं उन पर भी सटीक बैठती है।
‘इसलिये जैसे एक हण्डे में चुड़ते चावलों में से एक चावल की परीक्षा करने से कच्चे व पक्के हैं सब चावल विदित हो जाते हैं। ऐसे ही इस थोडे़ से लेख से सज्जन लोग बहुत सी बातें समझ लेंगे। बुद्धिमानों के सामने बहुत लिखना आवश्यक नहीं।’ (सत्यार्थप्रकाश, द्वादश. पृष्‍ठ 319)
‘जो अविश्वासी, अपवित्रात्मा, अधर्मी मनुष्‍यों का लेख होता है उस पर विश्वास करना कल्याण की इच्छा करने वाले मनुष्‍य का काम नहीं।’  (सत्यार्थप्रकाश, त्रयोेदशसमुल्लास, पृष्‍ठ 345)
‘जिनको विद्या नहीं होती वे पशु के समान यथा तथा बर्ड़ाया करते हैं। जैसे सन्निपात ज्वरयुक्त मनुष्‍य अण्ड बण्ड बकता है वैसे ही अविद्वानों के कहे वा लेख को व्यर्थ समझना चाहिये।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम. पृष्‍ठ 134)

¤ गुदा से साँप लेने की आज्ञा वेद में?
    अब आप स्वामी जी के अण्ड बण्ड बकने का उदाहरण भी देख लीजिए-
‘हे मनुष्यो, तुम मांगने से पुष्टि करने वाले को स्थूल गुदा इंद्रिय के साथ वर्तमान अंधे साँपों को गुदा इंद्रियो के साथ वर्तमान विशेष कुटिल सर्पों को आंतों से, जलों को नाभि से नीचे के भाग से, अंडकोष को आंड़ों से, घोड़ों लिंग और वीर्य से, संतान को पित्त से, भोजन को पेट के अंगों को गुदा इंद्रिय से और शक्तियों से शिखावटों को निरंतर लेओ। (-यजुर्वेद 25/7 पर स्वामी दयानंद जी का भाष्य पृ.876)
स्वामी दयानंद जी ने अपने पूरे जीवन में ईश्वर की इस आज्ञा का पालन नहीं किया और इस आज्ञा का पालन करना संभव भी नहीं है।
(87) आखि़र कोई मनुष्य गुदा से अंधे साँपों को कैसे ले सकता है ?
(88) ...और अगर किसी तरकीब से कोई ले भी ले तो आखि़र क्यों ले ले ?
(89) अंधे साँपों को गुदा से लेकर क्या फ़ायदा होगा ?
(90) क्या वास्तव में यह ईश्वर की आज्ञा है ?
(91) ईश्वर मानव जाति को ऐसी आज्ञा क्यों देगा जिससे कोई लाभ न हो ?
(92) क्या यही धर्म है ?
(93) धर्म ऐसा कैसे हो सकता है जिसका पालन ही संभव न हो ?
इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वर की आज्ञा कुछ और है। ईश्वर की उस आज्ञा का पता लगाना और उसका पालन करना ही सारे मनुष्यों का धर्म है।
(94) वेद के अश्लील अर्थ करने पर सत्यार्थप्रकाश, द्वादशसमुल्लास, पृ. 279 पर स्वामी दयानंद जी ने महीधरादि को भांड, धूर्त और निशाचरवत् कहा है। उन्होंने ख़ुद वेद का अर्थ अश्लील के साथ निरर्थक भी कर डाला तो अपने इस कर्म पर उन्होंने ख़ुद को क्या कहा या आर्य समाज ने उन्हें क्या कहा?

¤ हठ, दुराग्रह और पक्षपात क्यों?
    यजुर्वेद 25/7 का उपरोक्त अर्थ स्वामी दयानंद जी ने स्वयं किया है। इसलिए वह यह भी नहीं कह सकते कि यह वेद का वास्तविक अर्थ नहीं है। वेद का अश्लील और निरर्थक अर्थ देखकर भी उन्होंने न तो इसकी मज़ाक़ उड़ाई और न ही वेद के ईश्वर की विद्या को व्यर्थ बताया। यही स्वामी जी जब गुरू ग्रंथ साहिब, बाइबिल या क़ुरआन पढ़ते हैं तो उनकी अच्छी भली  बात पर भी ऐतराज़ करते हैं। क़ुरआन की बात समझ में भी आ रही हो तो भी उसे नहीं समझते। उनके इस पक्षपात की एक बानगी देखिए-
‘3-मालिक दिन न्याय का। तुझ ही को हम भक्ति करते हैं और तुझ ही से सहाय चाहते हैं। दिखा हमको सीधा रास्ता।। मं.1।सू.1।आ.3,4,5।।
(समीक्षक) क्या ख़ुदा नित्य न्याय नहीं करता? किसी एक दिन न्याय करता है? इससे अंधेर विदित होता है! उसी की भक्ति करना और उसी से सहाय चाहना तो ठीक परन्तु क्या बुरी बात का भी सहाय चाहना? और सूधा मार्ग एक मुसलमानों ही का है वा दूसरे का भी? सूधे मार्ग को  को मुसलमान क्यों नहीं ग्रहण करते? क्या सूधा रास्ता बुराई की ओर का तो नहीं चाहते? यदि भलाई सबकी एक है तो मुसलमानों ही में विशेष कुछ न रहा और जो दूसरों की भलाई नहीं मानते तो पक्षपाती हैं।।3।।’ (सत्यार्थप्रकाश, चतुर्दशसमुल्लास, पृष्‍ठ 361)
स्वामी जी ‘सीधा’ शब्द का उच्चारण तक ठीक न कर पाते थे। वह ‘सीधा’ पढ़ते थे लेकिन बोलते ‘सूधा’ थे, जो कि उनके मन में रमा हुआ था। क़ुरआन का विरोध भी उनके मन में रमा हुआ था। चाहे उसमें परमेश्वर ‘सीधे मार्ग’ की प्रार्थना ही सिखा रहा हो। तब भी उन्हें उस पर आपत्ति करनी ही थी। जब एक पाठक वेदमंत्र और क़ुरआन, दोनों के साथ स्वामी जी के व्यवहार की तुलना करता है तो उनका अज्ञान, हठ, अहंकार और पक्षपात सब सामने आ जाता है।
भारत में हज़ारों साल तक विधवाओं को सती किया जाता रहा। शादी-ब्याह और ख़ुशी के मौक़ों पर उन्हें दूर रखा गया। उन्हें पुनर्विवाह से रोका गया, उन्हें नियोग के लिए मजबूर किया गया। यहां तक कि सुहागिनों को अश्वमेध यज्ञ में अश्व का लिंग जबरन ग्रहण कराया गया। ऐसी एक घटना में गोरखपुर की रानी के मरने का ज़िक्र स्वामी जी ने भी (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृष्‍ठ 195 पर) किया है।
(95) क्या इनके साथ ईश्वर ने तुरंत न्याय कर दिया ?
    क़ुरआन पर ऐतराज़ करते समय वह स्वयं की मान्यता भी भूल गए। मनुस्मृति के हवाले से वह स्वयं बताते हैं-
‘नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलित गौरिव। शनैरावत्र्तमानस्तु कत्र्तुर्मूलानि कृन्तति।। मनु.।।
    किया हुआ अधर्म निष्फल कभी नहीं होता परन्तु जिस समय अधर्म करता है उसी समय फल भी नहीं होता। इसलिये अज्ञानी लोग अधर्म से नहीं डरते। तथापि निश्चय जानो कि वह अधर्माचरण धीरे-धीरे तुम्हारे सुख के मूलों को काटता चला जाता है।’ (सत्यार्थप्रकाश, चतुर्थसमुल्लास, पृष्ठ 69)
स्वामी जी इस बात पर विचार कर लेते तो क़ुरआन और ईश्वर पर ऐतराज़ न करते। हक़ीक़त यह है कि दुनिया कर्म के लिए है और फल के लिए परलोक है। दुनिया के छोटे से जीवन में पापियों को उनके पापकर्मों का पूरा बदला मिलना संभव नहीं है और न ही मार दिए गए लोगों को पता चल पाता है कि उनके साथ न्याय हो रहा है। उन्हें भी दिखना चाहिए कि हमारे साथ अन्याय करने वालों को कितनी भयानक सज़ा मिल रही है और उन्हें उनकी ख़ुशियां फिर से मिलनी चाहिएं बल्कि बढ़कर मिलनी चाहिएं। न्याय के दिन यही होगा। उस दिन हम दण्ड के भागी न हों। इसलिए हमें केवल एक परमेश्वर की ही भक्ति करनी चाहिए और उसी की आज्ञा का पालन करना चाहिए। इसी के लिए ईश्वर से सहायता की प्रार्थना की जाती है। यही सीधा मार्ग है। इस पर वही ऐतराज़ करता है, जो कि सीधे रास्ते पर न हो।

¤ क़ुरआन और तफ़्सीर (भाष्य) का अंतर समझने में असफल
मुसलमानों के पास आज भी क़ुरआन जैसी विशेष किताब है। जिसके ज़रिये पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अरबों की समस्याओं का समाधान किया और उन्हें विश्व का सिरमौर बना दिया। वह किसी इन्सान से नहीं पढ़े लेकिन हर ज़माने में और हरेक देश में अरबों लोग उनकी शिक्षाओं को पढ़ते रहे हैं। क़ुरआन की विशेषता यह है कि यह लोगों को आज भी पूरी की पूरी ठीक उसी तरह कंठस्थ है, जैसे कि पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब (स.) इसे अपने सामने कंठस्थ करा गए थे। यही वजह है कि अरब से लेकर हिन्दुस्तान तक हज़ारों हाफ़िज़ों को एक ही क़ुरआन याद है। यह अकेली किताब है, जिसमें आज तक कोई मिलावट न हो सकी। इसमें न तो कोई दुश्मन अपनी दुश्मनी निकालने के लिए कुछ मिला सका और न ही कोई अनुयायी भूल से अपनी बात मिला बैठा। अपनी तरह की यह बिल्कुल अनोखी किताब है। दुनिया में इसके जैसी कोई दूसरी किताब नहीं है और न ही कोई बना सकता है। यह स्वयं ईश्वर का दावा है।
स्वामी जी ईश्वर के इस दावे पर ध्यान देते तो वह धर्म का मार्ग जान लेते लेकिन उन्होंने इस पर भी ऐतराज़ जताया। जो कि उनके पक्षपात, हठ, अहंकार और अज्ञान को प्रमाणित करता है। देखिए-
8. जो तुम उस वस्तु की ओर से सन्देह में हो जो हमने अपने पैग़म्बर के ऊपर उतारी तो उस जैसी एक सूरत ले आओ और अपने साक्षी लोगों को पुकारो अल्लाह के बिना जो तुम सच्चे हो।। जो तुम और कभी न करोगे तो उस आग से डरो कि जिसका ईधन मनुष्य है, और काफ़िरों के वास्ते पत्थर किये गये हैं।। मं.1। सि.1। सू.2। आ. 23। 24।।
(समीक्षक) भला यह कोई बात है कि उसके सदृश कोई सूरत न बने? क्या अकबर बादशाह के समय में मौलवी फ़ैज़ी ने बिना नुक़ते का क़ुरान नहीं बना लिया था?...
(सत्यार्थप्रकाश, चतुर्दशसमुल्लास, पृष्‍ठ 363)
    स्वामी जी को पता न था कि मौलवी फ़ैज़ी ने क़ुरआन की तफ़्सीर (भाष्य) लिखी थी न कि क़ुरआन जैसी कोई किताब।
    स्वामी जी को यह तक पता न था कि क़ुरआन और तफ़्सीर(भाष्य) में क्या अंतर होता है? उनके शिष्यों में से भी किसी ने उनसे नहीं कहा कि स्वामी जी, जो दावा आप कर रहे हैं। वह दावा तो स्वयं फ़ैज़ी ने भी नहीं किया था। स्वामी जी के बाद उनके शिष्य भी इसी अज्ञान और हठ के मार्ग पर चले। आर्य समाज में आज तक कोई विद्वान ऐसा न हुआ जो सत्यार्थप्रकाश में इस ऐतराज़ के नीचे क्षमा याचना सहित लिखता कि स्वामी दयानंद जी का ऐतराज़ ग़लत है और वाक़ई आज तक क़ुरआन जैसी कोई किताब नहीं लिखी जा सकी। मौलवी फ़ैज़ी ने भी नहीं लिखी थी।
    वे यह बात कैसे लिख दें?,
ऐसा लिखते ही क़ुरआन का दावा सच मानना पड़ेगा। इससे सिद्ध होता है कि क़ुरआन के विरोध की बुनियाद केवल झूठ और नफ़रत है।
  
¤ अपनी पुस्तकों को मिलावट से बचाने में असफल
    क़ुरआन प्रिंटिंग प्रेस के अविष्कार से पहले आया था। उसे हाथों से लिखने में बड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। एक आदमी से दूसरा नक़ल करता था और दूसरे से तीसरा। तब भी वह अपने मूल रूप में है जबकि स्वामी जी ने और उनके अनुयायियों ने प्रिंटिंग प्रेस से अपनी पुस्तकें छपवाईं। फिर भी वे एक न रहीं। स्वामी जी ने वर्षों अध्ययन करके अपनी जो मान्यताएं बनाई थीं।  सत्यार्थ प्रकाश का द्वितीय संस्करण छपवाया तो उनमें से कुछ बातों को स्वामी जी ने ख़ुद ही बदल दिया जैसे कि श्राद्ध आदि के संबंध में। आज सत्यार्थ प्रकाश का पहला संस्करण अप्राप्त है। हालत यह है कि सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय संस्करण को भी  हरेक आर्य विद्वान अपनी मर्ज़ी से कतर ब्यौंत कर छाप रहा है। इस सबसे दुखी होकर आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट के प्रधान श्री दीपचन्द आर्य जी ने साफ़ लिखा है कि
    ‘यदि संशोधकों के ये दुष्कृत्य नहीं रोके गये तो भविष्य में महर्षि के ग्रन्थों में अन्य आर्ष ग्रन्थों की भांति प्रक्षेप का पता लगाना दुष्कर हो जायेगा।’ (सत्यार्थप्रकाश, प्रकाशकीय)
    यह अज्ञान और हठ नहीं तो और क्या है?, तिस पर यह कि क़ुरआन की आयत का उर्दू से हिन्दी अनुवाद भी उन्होंने अपने ही जैसे किसी पंडित से करवा लिया। उसने अनुवाद में काफ़ी ग़लतियां की हैं। जिस पर बात की जाए तो एक लेख अलग से लिखना पड़ेगा।
पवित्र क़ुरआन केवल अपनी सुरक्षा के ऐतबार से ही अपनी तरह की अकेली किताब नहीं है बल्कि यह अकेली किताब है जो बताती है कि मनुओं (माननीय पुरुषों) का चरित्र और धर्म उत्तम था।

¤ मनु के धर्म की शिक्षा देने वाले क़ुरआन का विरोध क्यों?
   पवित्र कुरआन ‘स्वयंभू मनु’ पर लगने वाले आरोप का खण्डन करता है। क़ुरआन में सबसे पहले जिस नबी का ज़िक्र है वह हैं आदम (अलैहिस्-सलाम अर्थात उन पर शांति हो)। आदम नाम की धातु ढूंढी जाए तो यह ‘आद्य’ धातु से बना प्रतीत होता है। जिसका अर्थ है पहला। ‘आद्य’ से ‘आदिम्’ बना, जो कालान्तर व भाषान्तर से आदम हो गया। बिना माँ-बाप के स्वयं से उत्पन्न होने के कारण ही उन्हें वैदिक साहित्य में स्वयंभू मनु’ कहा गया। ‘मनु स्मृति’ को अज्ञानवश उनसे जोड़ा जाता है। मनु स्मृति भी उन्हें स्वयं से उत्पन्न होने वाला सबसे पहला मनुष्य ही बताती है। उनके काल में राजा, महाराजा और युद्ध नहीं होते थे। उनके काल में लूटमार, अपहरण और बलात्कार नहीं होते थे। उन्होंने इनके विषय में कोई व्यवस्था कभी नहीं दी। यह बात क़ुरआन से पता चलती है। क़ुरआन को न मानने वाले दुराग्रही सांप्रदायिक तत्व स्वयंभू मनु की वास्तविकता को कभी नहीं जान सकते। इसीलिए वे बेसिर-पैर के दावे करते हुए नज़र आते हैं।

¤ मनुस्मृति को एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख बावन हज़ार नौ सौ छहत्तर वर्ष पुराना मानना ग़लत है

स्वामी जी ने वेद की भांति मनुस्मृति का होना भी सृष्टि के आदि में ही माना है-
‘यह मनुस्मृति जो सृष्टि के आदि में हुई है’ सत्यार्थप्रकाश,एकादशसमुल्लास, पृ.187)
सृष्टि के आदि के विषय में स्वामी जी ने बताया है-
‘यह जो वत्र्तमान सृष्टि है, इसमें सातवें (7) वैवस्वत मनु का वत्र्तमान है, इससे पूर्व छः मन्वन्तर हो चुके हैं। स्वायम्भव 1, स्वारोचिड्ढ 2, औत्तमि 3, तामस 4, रैवत 5, चाक्षुड्ढ 6, ये छः तो बीत गए हैं और सातवां वैवस्वत वत्र्त रहा है.’ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, अथ वेदोत्पत्ति., पृ.17)
स्वामी जी ने बताया है कि
एक मन्वन्तर में 71 चतुर्युगियां होती हैं।
एक चतुर्युग में सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग होते हैं। सतयुग में 1728000 वर्ष, त्रेता में 1296000 वर्ष, द्वापर में 864000 वर्ष और कलियुग में 432000 वर्ष होते हैं। इन चारों युगों में कुल 4320000 वर्ष होते हैं।
71 चतुर्युगियों में कुल 306720000 वर्ष होते हैं।
छः मन्वन्तर अर्थात 1840320000 वर्ष पूरे बीत चुके हैं और अब सातवें मन्वन्तर की 28वीं चतुर्युगी चल रही है।
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका लिखे जाते समय तक सातवें मन्वन्तर के भी 120532976 वर्ष बीत चुके थे। इस तरह स्वामी जीे के अनुसार उस समय तक स्वयंभू मनु को हुए कुल 1960852976 वर्ष, एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख बावन हज़ार नौ सौ छहत्तर वर्ष बीत चुके थे।
स्वामी जी ने जो काल स्वयंभू मनु का बताया है, उस समय धरती पर मानव सभ्यता नहीं पाई जाती थी। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है। इसलिए मनु स्मृति को स्वयंभू मनु से जोड़ना ग़लत है। उसमें जो श्लोक मनु के नाम से कहे गए हैं, वास्तव में उन्हें किसी और ने उनके नाम से लिखा है। मनु स्मृति का स्वयंभू मनु से कोई संबंध ही नहीं है। यही कारण है कि मनु स्मृति से स्वयंभू मनु के धर्म का पता लगाना संभव नहीं है। पाठक उससे जिस वर्ण व्यवस्था का पता लगाएंगे, उसका पालन करना संभव नहीं है।
हालाँकि स्वामी दयानंद जी ने मनु स्मृति को प्रक्षिप्त मानकर उसके कुछ श्लोकों को नहीं माना है लेकिन इतना काफ़ी नहीं है। मनुस्मृति में कोई भी श्लोक स्वयंभू मनु का कहा हुआ नहीं है। इस ग्रन्थ की शुरूआत में ही इसे फ़र्ज़ी तरीक़े से स्वयंभू मनु से जोड़ने की कोशिश की गई है। इसे कितने लोगों ने और कब लिखा है?, इसका कुछ पता स्वामी दयानन्द जी जैसे शोधक को भी न चल पाया।
इस सत्य को न जानने के कारण ही स्वामी जी ने मनु स्मृति की वर्ण व्यवस्था को धर्म समझ लिया और वह उसमें बताई गई ऊँच-नीच और छूत-छात के नियमों का कड़ाई से पालन करते रहे। इसी अप्रामाणिक मनु स्मृति का प्रमाण मानकर वह कहते हैं कि धर्म के अनुसार दासीपुत्र को मंत्री नहीं बनाया जा सकता। इन बातों को वह ऋषियों का धर्म बताते हैं। अन्याय की बात को धर्म बताकर वह लोगों को ऋषियों की और उनके धर्म की निंदा करने का अवसर देते हैं।
इन बातों को हटा दिया जाए तो वैदिक धर्म और इसलाम में कोई मूलभूत अन्तर ्येड्ढ नहीं रह जाता। मनु स्मृति में भी बहुत सी बातें सही हैं। उसकी सारी सही बातें वास्तविक प्राचीन धर्म की शिक्षाएं हैं जो कि इसलाम के अनुकूल हैं।

¤ चार युगों की कल्पना भी ग़लत निकली
   स्वामी जी ने चार युगों के काल की अवधि को आधार बनाकर सृष्टि संवत 1960852976 बताया है। जो कि ग़लत है। इससे चार युगों की कल्पना भी ग़लत सिद्ध हो जाती है।

¤ प्रक्षिप्त ग्रन्थों को विड्ढयुक्त अन्न की भाँति छोड़ने का आदेश
    स्वामी जी दूसरों को यह उपदेश देते थे कि
‘‘जो कोई इन मिथ्या ग्रन्थों से सत्य का ग्रहण करना चाहे तो मिथ्या भी उसके गले लिपट जावे। इसलिए ‘असत्यमिश्रं सत्यं दूरतस्याज्यमिति‘ असत्य से युक्त ग्रन्थस्थ सत्य को भी वैसे छोड़ देना चाहिये जैसे विषयुक्त अन्न को।’’ (सत्यार्थप्रकाश, तृतीय., पृष्‍ठ 48)
स्वामी जी मनु स्मृति को प्रक्षिप्त भी मानते हैं और उससे प्रमाण भी देते हैं, क्यों ?, उन्हें तो अपने उपदेश पर आचरण करते हुए मनु स्मृति को त्याग देना चाहिए था।
जिस उपदेश पर वह दूसरों से आचरण की अपेक्षा करते थे, उस पर वह ख़ुद आचरण करते तो उन्होंने मनु स्मृति से प्रमाण न दिया होता।
¤ मनु की नहीं, उनके विरोधियों की देन है ऊँचनीच
आदम हों या नूह हों, किसी भी मनु ने ऊँच-नीच और छूतछात को कभी धर्म नहीं बताया। पवित्र क़ुरआन उन पर लगने वाले इस आरोप का भी खण्डन करता है।
जलप्लावन वाले एक अन्य मनु का वर्णन भी क़ुरआन में ‘नूह’ (अलैहिस्-सलाम अर्थात उन पर शांति हो) के नाम से मिलता है। कुरआन बताता है कि आदरणीय नूह (उन पर शांति हो) पर श्रद्धा रखने वाले वही लोग थे जिन्हें तत्कालीन समाज में नीच और तुच्छ समझा जाता था। समाज के तथाकथित उँचे लोगों ने आदरणीय नूह (उन पर शांति हो) पर इसी बात को लेकर ऐतराज़ भी किया लेकिन उन्होंने समाज के दलितों-वंचितों को खुद से दूर नहीं किया। देखिये-
‘इस पर उसकी क़ौम के सरदार, जिन्होंने इन्कार किया था, कहने लगे हमारी दृष्टि में तो तुम हमारे ही जैसे आदमी हो और हम देखते हैं कि बस कुछ लोग ही तुम्हारे अनुयायी हैं जो पहली दृष्टि में ही हमारे यहाँ के नीच हैं। हम अपने मुक़ाबले में तुम में कोई बड़ाई नहीं देखते हैं बल्कि हम तो तुम्हें झूठा समझते हैं।’ (सूरा-ए-हूद, 27)
देखिए, पवित्र कुरआन का चमत्कार ! पूरी धरती पर वह अकेली किताब है जो कहती है कि मनु ने जातिवाद नहीं फैलाया जबकि यह बात उनका कोई भी अनुयायी नहीं कहता। कोई नहीं कहता कि मनु ने सबको बराबरी का दर्जा दिया। जिनको तत्कालीन समाज ने नीच समझा, सत्य को अपना कर वही श्रेष्‍ठ बने, ईश्वर के दण्ड से बचे और बाद में मानव जाति के जनक भी मनु के साथ यही लोग हुए। जिस बात को कोई नहीं कहता, कोई नहीं जानता, उसकी चर्चा कुरआन में कैसे है ? और वह भी आज से लगभग 1430 वर्ष पहले।
(96) क्या यह सोचने का विषय नहीं है कि पवित्र कुरआन की किसी भी सूरत का नाम महामना मुहम्मद (स.) के माँ- बाप, रिश्तेदारों और साथियों में से किसी के भी नाम पर नहीं है जबकि एक सूरत का नाम ‘नूह’ है ?

¤ क़ुरआन में मनु का सम्मान सहित वर्णन
    पूरे कुरआन की हज़ारों आयतों में महामना मुहम्मद (स0) का नाम सिर्फ़ 4 बार आया है जबकि मनुओं में से एक जल प्लावन वाले मनु का नाम ‘नूह’ लगभग 45 बार आया है। मक्का में नूह के अनुयायी नहीं थे कि उनका नाम लेकर उनके मानने वालों से मदद पाना वांछित हो और न ही अरब के लोग उन्हें जानते थे बल्कि स्वयं महामना मुहम्मद (स0) भी कुरआन के अवतरण से पहले यह सब नहीं जानते थे। ईश्वर कहता है-
‘ये परोक्ष की खबरें है जिनकी हम तुम्हारी ओर प्रकाशना कर रहे हैं। इससे पहले न तो तुम्हें इनकी खबर थी और न ही तुम्हारी क़ौम को।’ (सूरा-ए-हूद,49)
मनु स्मृति के नाम से किसी ने भृगु आदि कई पुरूषों के श्लोक संकलित कर लिए। उनमें भी समय समय पर मिलावट होती रही। अब कोई यह नहीं कह सकता कि ये श्लोक भृगु आदि के ही हैं या इन्हें भी उनके नाम से अन्य पंडितों ने ही बनाए हैं?
मनु स्मृति में अच्छी बातें भी हैं। जिससे पता चलता है यह संकलन शुरू में सत्पुरूषों के हाथों में रहा होगा। बाद में, जब अच्छे लोग कम हो गए और वे भी ध्यान और चिंतन के लिए जंगल में जा बसे तो समाज में बुरे लोग हावी हो गए। उन्होंने ऊँचनीच, छूतछात, अपहरण, बलात्कार, नियोग और ब्याज के लेन देन को धर्म सम्मत दिखाने के उद्देश्य से श्लोक बनाकर मनु स्मृति में सम्मिलित कर दिए। पुराण आदि में अश्लील कथाएं भी ऐसे ही ग़लत लोगों ने लिखी हैं। बुरे लोगों ने अपनी चैधराहट क़ायम करने के मक़सद से यह सब किया। इससे वे दूसरों का आर्थिक और यौन शोषण करते रहे और धर्म ग्रन्थों से प्रमाण देकर अपने बुरे कर्मों को धर्म बताते रहे। धर्मग्रन्थ ग़लत नहीं हैं बल्कि वे ग़लत हाथों में पड़े तो बाद में उनमें ग़लत बातें मिला दी गईं। दूसरों के कर्म का ज़िम्मेदार मनु को ठहराना अपने पिता मनु के साथ ज़ुल्म करना है।

¤ मनुः एक आदर्श मनुष्य
   आज जमीन पर बहुत से ईश्वरीय ग्रन्थ हैं। जिनमें विश्वास का दावा करोड़ों लोग करते हैं। वे लोग अपने नबियों और ऋषियों पर आस्था रखते हैं लेकिन उन पर झूठे लांछन भी लगाते हैं, आदम से लेकर ईसा तक, हर एक ईशदूत पर। कारण यह है कि ईसा, मूसा, लूत, और मनु सबकी शिक्षाएं बिगाड़कर रख दीं। कुरआन बताता है कि ये सभी ईश्वर के दूत थे, हरेक बुराई से पाक और मासूम थे और सबने मानव जाति को एक ही धर्म की शिक्षा दी।
‘उस (ईश्वर) ने तुम्हारे लिए वही धर्म निर्धारित किया जिसका आदेश उसने नूह को दिया था।’ (पवित्र कुरआन, अश्-शूरा, 13)
पैग़म्बर मुहम्मद साहब (स.) ने कोई नया धर्म नहीं चलाया बल्कि ईश्वर ने उन्हें उसी धर्म का पालन करने के लिए कहा, जिसका पालन उनसे पहले नूह (जल प्लावन वाले मनु) करते थे। जो कोई वास्तव में मनु का धर्म जानना चाहे तो वह पवित्र कुरआन में उनका वृत्तान्त पढ़ ले।

¤ ‘असली वेद’ पढ़ने के लिए चाहिए ‘प्रकाश’ और ‘दृष्टि’
   क़ुरआन का एक नाम ‘फ़ुरक़ान’ अर्थात कसौटी भी है (देखिए क़ु. 25,1)। वेद-स्मृतियों में कौन सी बात धर्म की है, क़ुरआन की कसौटी पर परखने के बाद हरेक इन्सान यह सरलता से जान सकता है।  वेद के गूढ़ अर्थों को भी पवित्र कुरआन की स्पष्‍ट शिक्षाओं के आधार पर समझना आसान है। क़ुरआन का एक नाम ‘नूर’ (प्रकाश) भी है।
‘अतः ईमान लाओ अल्लाह पर और उसके रसूल पर और उस प्रकाश पर जिसे हमने अवतरित किया है।’ (पवित्र कुरआन, 64,8)
हमने इसी प्रकाश में ‘असली वेद’ खोजा तो हमें वह सुरक्षित मिला।
जो हिन्दू भाई कहते हैं कि ‘असली वेद’ खो गए हैं, वे ग़लत नहीं हैं। हक़ीक़त यह है कि ज़्यादातर लोग ‘असली वेद’ को पहचानने की क्षमता खो चुके हैं। केवल क़ुरआन के प्रकाश में ही ‘असली वेद’ को जाना जा सकता है। हमने ऐसे ही जाना है।
‘असली वेद’ से हमारा तात्पर्य उस ज्ञान से है जिससे हमें जीवन का सच्चा उद्देश्य और उसे पाने का सही तरीक़ा पता चलता है। इसीलिए हम वेद का आदर करते हैं।
वेद का ज्ञान किसने दिया?
वेद का ज्ञान सबसे पहले किसे मिला?
वेद कैसे खोए?
वेद कहाँ खोए?
इन बातों को जान लिया जाए तो असली वेद कैसे मिलते हैं?, यह पता चल जाएगा। वर्तमान वेदों में ही ‘असली वेद’ निहित है। इस विषय को लिखा जाए तो एक और किताब तैयार हो जाएगी।
जो लोग अपने अहंकार के कारण पवित्र कुरआन को ग्रहण नहीं करते, वास्तव में वे ‘असली वेद’ तक पहुंचने के एकमात्र प्रामाणिक साधन से स्वयं को वंचित करते हैं। इसीलिए कहा गया है-
उत त्वः पश्यन् न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन् न शृणोत्येनाम्
‘बुद्धिहीन लोग ग्रन्थ देखते हुए नहीं देखते और सुनते हुए नहीं सुनते।’ (ऋग्वेद 10,71,4)
‘और उनके पास आँखें हैं वे उनसे देखते नहीं और उनके पास कान हैं वे उनसे सुनते नहीं वे पशुओं की तरह हैं।’ (पवित्र कुरआन 7,179)

¤ धरती का एकमात्र अजर अमर और अक्षय ग्रन्थ
     पवित्र कुरआन अपनी सच्चाई का सबूत खुद ही है। हज़ारों साल में धरती के मनुष्‍यों ने करोड़ों किताबें लिखी हैं। जो समय गुज़रने के बाद या तो पूरी तरह मिट गईं या उनमें कुछ घटा-बढ़ा दिया गया है। आज भी जब कोई लेखक किसी विषय पर कोई किताब लिखता है तो उसके द्वितीय संस्करण में स्वयं ही फेरबदल करने पर मजबूर हो जाता है ।
सारी धरती पर मौजूद करोड़ों किताबों के बीच में पवित्र कुरआन ही एकमात्र ऐसी अक्षय और अजर अमर किताब है, जो आज भी उसी रूप में है जैसी कि वह बिल्कुल शुरू में थी उसका दूसरा एडीशन नहीं है। 1400 वर्ष से भी ज़्यादा समय बीतने के बावजूद भी वह अपने मूल और शुद्ध रूप में सबको उपलब्ध है। उसमें न तो कुछ बढ़ाया जा सकता है और न ही घटाया जा सकता है। करोड़ों लोग उसे रोजाना पढ़ते हैं और लाखों लोगों ने उसे कण्ठस्थ कर रखा है। ऐसी अजर अमर किताब, एक अजर अमर ईश्वर की ओर से ही संभव है।
इसकी आयतों में मनुष्‍य के मन में उठने वाले सभी प्रश्नों और उसे पेश आने वाली सभी समस्याओं का हल तर्क और ज्ञान के आधार पर सरल रूप में पेश किया गया है। व्यक्ति और समाज को व्यक्तिगत और सामूहिक रूप में नैतिकता, अध्यात्म, राजनीति, अर्थव्यवस्था, मनोविज्ञान और प्रत्येक क्षेत्र में साफ़ और सीधे निर्देश दिए गए हैं, जिन्हें नज़रअन्दाज़ करके उन्नति और कल्याण संभव ही नहीं है। इसमें धरती, मौसम और मनुष्‍य के जन्म के सम्बन्ध में जितनी बातें बताई गई हैं, आज आधुनिक विज्ञान ने उनकी सत्यता को स्वीकार किया है। अर्थव्यवस्था पर पवित्र कुरआन के नियम आज दुनिया को मार्ग दिखा रहे हैं। दुनिया के अर्थशास्त्री मान रहे हैं कि विश्व की अर्थव्यवस्था को मन्दी से उबारने के लिए एकमात्र उपाय कुरआन की ब्याज रहित अर्थव्यवस्था को अपनाना है
‘यह अनुस्मरण (कुरआन) निश्चय ही हमने अवतरित किया है और हम स्वयं इसके रक्षक है।’ (सूरा अल-हिज्र,9)
    क़ुरआन दयालु पालनहार की ओर से एक त्मउपदकमत है, जो अपने से पूर्व अवतरित ‘ज्ञान’ की पुष्टि करता है। इसका रक्षक ईश्वर स्वयं है। कुरआन में प्राचीन ऋषियों-नबियों का चरित्र और उनका धर्म सुरक्षित है। इस प्रकार ईश्वर ने मानवता के लिए अपने धर्म की पुनर्स्‍ थापना भी की है और अपने धर्म प्रचारक ऋषियों पर लगने वाले झूठे आरोपों का निराकरण भी कर दिया है। इसी के साथ उसने अपनी दया से धर्मज्ञान भुला चुके राष्‍ट्रों को फिर से एक मौक़ा दिया है जिसके ज़रिये वो अपने-अपने ऋषियों के सिद्धान्त और व्यवहार को जान सकते हैं और उन्हें अपनाकर अपने जन्म का उद्देश्य पूरा कर सकते हैं।
(97) ऐसा महान और सुरक्षित ज्ञान, पवित्र कुरआन जब मनु को निर्दोष निष्‍पाप और समाज में बराबरी देने वाला बताता है तो क़ुरआन के कथन को स्वीकारने में हिचकिचाहट क्यों?

¤ स्वामी जी की कसौटी पर ही उनका मत झूठा ठहरा
    स्वामी जी क़ुरआन का विरोध करते हुए यह तक कह गए-
    ‘जो दूसरे मतों को कि जिसमें हजारों क्रोड़ों मनुष्य हों झूठा बतलावे और अपने को सच्चा उससे परे झूठा दूसरा मत कौन हो सकता है ?’ (सत्यार्थप्रकाश, चतुर्दश. पृष्ठ सं. 378)
    स्वामी दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के 13 अध्यायों में नानक पंथ, कबीर पंथ, दादू पंथ, गोकुलिगोस्वामी मत, स्वमीनारायण मत, ब्राह्म समाज मत, शाक्तवैष्णव मत, शैव मत, वाम मार्ग, बौद्ध मत, जैन मत, चारवाक मत, अद्वैत मत, ईसाई मत आदि को झूठा बताया और 14वें अध्याय में फ़रमाया कि
‘जो दूसरे मतों को कि जिसमें हजारों करोड़ों मनुष्य हों झूठा बतलावे और अपने को सच्चा उससे परे झूठा दूसरा मत कौन हो सकता है?’
स्वामी जी को चाहिए था कि जो कुछ वह कह रहे थे, उस पर वह अपना मत भी परख कर देख लेते।
(98) क्या अपने कथन के अनुसार उनका मत सबसे ज़्यादा झूठा मत सिद्ध नहीं होता?

¤ स्वामी जी वर्ण व्यवस्था को कर्म के आधार पर मानने में असफल रहे
    स्वामी जी के जीवन की एक अन्य घटना में भी उनके अज्ञान और पक्षपात को देखा जा सकता है-
‘‘स्वामी जी रायपुर पहुंचे। वहां माधवदास की कुटिया में रुके। वहां ठाकुर हरिसिंह सपरिवार उनसे मिलने आए। उन्होंने स्वामी जी को एक स्वर्ण मुद्रा और पांच रुपये भेंट में दिए। स्वामी जी ने उनसे राज्य के मंत्री का नाम पूछा।
ठाकुर साहब ने कहा-‘शेख़ ईलाही बख्श हैं। अभी वे जोधपुर गए हैं। फ़िलहाल उनका कार्य उनका भतीजा करीमबख्श देखता है।’
स्वामी जी ने कहा-‘यवनों को राज्य का मंत्री न बनाओ, क्योंकि वे दासी पुत्र हैं।‘
यह सुनना था कि वहां बैठे करीमबख्श सहित कुछ मुसलमान उनसे चिढ़ गए।
अगले दिन ये लोग एक क़ाज़ी को लेकर स्वामी जी के पास आए। क़ाज़ी ने स्वामी जी से पूछा-‘आपने इन्हें दासी पुत्र कैसे कहा ?’
स्वामी जी बोले-‘कुरान में लिखा है।’
क़ाज़ी ने कहा-‘कहीं नहीं लिखा है।’
स्वामी जी ने क़ुरान मंगाई। बोले-‘देखिए, सूरत अनक सून में लिखा है-उसी साल (ख़ुदा ने) उसे (इबराहीम को) हाजरा (के गर्भ से) जो सारा की दासी थी, ईस्माइल प्रदान किया।’
क़ाज़ी बोला-‘वह दासी तो थी, परन्तु उन्होंने निकाह कर लिया था।’
स्वामी जी बोले-‘फिर भी थी तो वह दासी ही। आपके दासी पुत्र होने में क्या सन्देह है ?’
यह सुन क़ाज़ी चुप हो गया।’’
(युगप्रवर्तक महर्षि स्वामी दयानंद, पृ. 137)
इस घटना से मुसलमानों के प्रति स्वामी दयानंद जी का पक्षपात और द्वेष भी सामने आ जाता है और उनका अज्ञान भी।
पवित्र क़ुरआन में ‘सूरत अनक सून’ नाम की कोई सूरत ही नहीं है। क़ाज़ी साहब ने सही कहा था कि ऐसा क़ुरआन में कहीं नहीं लिखा है।
सारे यवन अर्थात मुसलमान हज़रत इस्माईल (अलैहिस्-सलाम) की सन्तान नहीं होते। ईरानी, अफ़ग़ानी, मुग़ल, ब्राह्मण, राजपूत, अंग्रेज़, फ्ऱेन्च, चीनी, जापानी, मलय और दूसरी बहुत सी नस्लों के लोग भी मुसलमान हैं और अधिसंख्या में मुसलमान यही लोग हैं। इसलिए यह कहना ग़लत है कि मुसलमान दासी पुत्र होते हैं।
दासी होना परिस्थिति की देन है, न कि कोई चारित्रिक दोष। दासी से निकाह करके उसे पत्नी बना लिया जाए तो वह पत्नी बन जाती है। निकाह के बाद पत्नी केवल पत्नी होती है, वह दासी नहीं रह जाती। यह कॉमन सेंस की बात है।
यह अजीब बात है कि स्वामी जी बिना विवाह किए नियोग से उत्पन्न पुत्र को तो राजा होने के योग्य मानते हैं और निकाह के बाद पैदा होने वाली वैध संतान को वह मंत्री होने के योग्य भी नहीं मानते।
स्वामी जी के कथन से यह पता चलता है कि वह पद के लिए व्यक्ति की योग्यता के बजाय उसके जन्म को अधिक महत्व देते थे। अगर कोई दासी हो तो उसके वंश में 4 हज़ार वर्ष बाद पैदा होने वाला योग्य व्यक्ति भी मंत्री नहीं बन सकता। इस तरह स्वामी दयानंद जी की असली विचारधारा सामने आ जाती है कि वह वर्ण और कर्म का निश्चय जन्म के आधार पर ही करते थे।
यह भी एक त्रासदी है कि जन्म के आधार पर दूसरों का वर्ण निश्चित करने वाले स्वामी जी का जन्म स्थान और वर्ण क्या था?, इसका कोई प्रमाण उनके शिष्यों को भी न मिल पाया। जैसा कि इस पुस्तक के आरंभ में वर्णित है।
ऐसा करके उन्होंने मुसलमानों के लिए और दासी पुत्रों के लिए वैदिक धर्म का द्वार स्वयं ही बंद कर दिया। सभी बराबरी और सम्मान चाहते हैं। कोई ऐसे धर्म को क्यों स्वीकार करेगा जिसमें उसे मंत्री बनने से मात्र इस कारण रोक दिया जाए कि 4,000  साल पहले उसके ख़ानदान में किसी औरत को कुछ समय के लिए दासी बना लिया गया था।

¤ इसलाम की जानकारी और शिष्टाचार का घोर अभाव
   इस घटना का वर्णन पण्डित लेखराम कृत ‘महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र’ (पृष्ठ 539 व 540) में पढ़ा जाए तो स्वामी दयानन्द जी को अज्ञानता और नफ़रत के शिखर पर देखा जा सकता है। देखिए-
    ‘‘महाराज दुग्धपान करके कुर्सी बिछवाकर स्वयं बैठ गए और उनको बुलवाया तथा फर्श पर बिठा दिया। आते ही काजी जी ने प्रश्न किया-आप हमको दासी पुत्र कैसे बतलाते हो ?
    स्वामी जी- अपने कुरान शरीफ को देखो। इसराईल जिसको इब्राहीम कहते हो उसकी दो पत्नियां थीं-एक ब्याही हुई ‘सारा’, दूसरी दासी ‘हाजरा’ जिसको उसने घर में डाला हुआ था। अब देखिये कि सारा से अंग्रेज लोग और हाजरा से तुम लोग उत्पन्न हुए, फिर दासीपुत्र होने में क्या सन्देह है?
काजी जी- कुरान में ऐसा नहीं लिखा।
स्वामी जी ने रामानन्द ब्रह्मचारी को कहा कि कुरान का पुस्तक लाओ। पुस्तक लाकर काजी जी को दिखलाया (कुरान सूरये अन्कबूत-उसी वर्ष में इस्माइल को हाजरा ने उत्पन्न किया जो सारा खातून की दासी थी। खंड 2, पृष्ठ 167)
काजी जी- वह दासी तो थी परन्तु निकाह (विवाह) कर लिया था।
स्वामी जी- फिर भी वास्तव में तो दासी ही है तो फिर आप के दासीपुत्र होने में क्या सन्देह है?
    इस पर काजी जी निरुत्तर हो गये। मुसलमान सब देखते के देखते रह गये।
    इस समय कुरान को स्वामी जी ने हाथ से पृथिवी पर रख दिया। काजी जी ने कहा- आपने यह क्या किया कि कुरान को पांव में रख दिया।
स्वामी जी- काजी साहब ! तनिक विचार करो, क्या काजी नाम ही के कहलाते हो? कागज और स्याही कैसे बनता है और छापाखाना में किस पर कागज छापते हैं और कलम (लेखनी) क्या चीज है और कहां से उत्पन्न होती है ?
    इस पर निरूत्तर होकर काजी जी उठ खड़े हुए और उनके साथ सब यवन शान्त होकर चले गये।’’

¤ समीक्षा
    1. स्वामी दयानंद जी को यह तक पता नहीं था कि हज़रत इबराहीम अलैहिस्-सलाम को इसराईल नहीं कहा जाता। इसराईल तो उनके पोते याक़ूब अलैहिस्-सलाम को कहा जाता है जो कि हज़रत इसहाक़ अलै. के बेटे थे। जिस बात का सही पता न हो, उसके विषय में विद्वान कभी नहीं बोलते। अंग्रेज़ों को सारा की सन्तान बताना भी अज्ञानता का परिचायक है। अंग्रेज़ों में भी बहुत सी नस्लों के लोग हैं।
    2. सूरा ए अन्कबूत में भी यह आयत नहीं है। क़ुरआन का नाम लेकर झूठ बोलना भी विद्वान का काम नहीं है।
    3. सभी लोग एक दूसरे के धार्मिक ग्रन्थों का आदर करते हैं। यह सामान्य शिष्टाचार है। इसी से समाज में शान्ति बनी रहती है और सब एक दूसरे के काम आते हैं। सब एक दूसरे के ग्रन्थों का निरादर करें तो लोग एक दूसरे से लड़ पड़ेंगे और समाज की शान्ति नष्ट हो जाएगी।
    4. क़ुरआन शरीफ़ को मुसलमानों के सामने अपने पांव के पास ज़मीन पर रखने का काम वही शख्स कर सकता है, जिसे सभ्य समाज में रहने का तरीक़ा न आता हो या फिर उसके दिल में क़ुरआन और मुसलमानों के प्रति नफ़रत भरी हो। उनकी इस हरकत को कोई भी अच्छा नहीं कह सकता।
5. स्वामी जी अच्छी तरह जानते थे कि ज्ञानी और अज्ञानी मनुष्य एक जैसे ही तत्वों से बने होते हैं लेकिन समाज में ज्ञानी का आदर किया जाता है। किसी चीज़ का आदर इसलिए नहीं किया जाता कि वह ऐसे अनोखे तत्वों से बनी है जिनसे दुनिया में कोई दूसरी चीज़ नहीं बनी है।
6. स्वामी जी की बात सुनकर और क़ुरआन के साथ अपमानजनक रवैया देखकर मुसलमान समझ गए कि इस आदमी के ज्ञान और सभ्यता का क्या स्तर है और इसकी मंशा झगड़ा पैदा करने के सिवा कुछ नहीं है ताकि ठाकुर हरिसिंह ईलाहीबख़्श को मंत्री पद से हटा दें। इसीलिए वे स्वामी जी की योजना को नाकाम करने के लिए वहां से शान्त होकर चले गए। अगर क़ाज़ी जी सब्र से काम न लेते तो स्वामी जी ने वहां बलवा करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। स्वामी जी जीवन भर हिन्दू मुस्लिम एकता पर इसी प्रकार कुठाराघात करते रहे। उनके चरित्र से प्रेरित होकर समाज में उपद्रव फैलाने वाले बलवाई आज भी धर्म ग्रन्थों के साथ ऐसी अपमानजनक हरकतें करते रहते हैं।
7. आपस में एकता और विश्वासपूर्वक व्यवहार करने वाले हिन्दू-मुसलमानों में उन्होंने फूट डालने का यह प्रयास ऐसे समय किया जबकि देश पर अंग्रेज़ शासन कर रहे थे और भारतीयों को आपसी एकता की सख़्त ज़रूरत थी। उनके विचार आज भी नफ़रत और भ्रम फैला रहे हैं।

¤ भागवत को पांव लगाना और हिन्दू गुरु के चित्र पर जूते मारना निन्दनीय है
धर्मग्रन्थों के अपमान का यह प्रशिक्षण स्वामी दयानन्द जी को उनके गुरु विरजानन्द की देन है-
‘दण्डी जी ने इस बात का निश्चय कर लिया कि भागवत आदि पुराणों और सिद्धांतकौमुदी आदि अनाड्र्ढ ग्रन्थों ने संसार में अविद्या का बवण्डर और स्वार्थ का राज्य फैला रखा है इसलिये वे इन भ्रष्ट ग्रन्थों के लेखकों से अपने विद्यार्थियों को पूर्ण और प्रबल घृणा दिलाना चाहते थे। इसकी पूर्ति के लिए उन्होंने एक जूता रख छोड़ा था और ‘सिद्धांतकौमुदी’ के रचयिता भट्टोज दीक्षित के चित्र पर वे सब विद्यार्थियों से जूते लगवाया करते थे। कभी भागवत पुराण की पुस्तक को यह कहते हुये अपने पांव लगा देते कि इन पुराणों ने ही भ्रमजाल फैलाकर लोगों को विद्या, बुद्धि और पुरुड्ढार्थ से हीन कर दिया है।’ (म. दयानन्द स. का जीवन चरित्र, पृष्ठ 845)
भारत जैसे सांस्कृतिक बहुल देश में ऐसा प्रशिक्षण देना ठीक नहीं कहा जा सकता। सनातन धर्म के आचार्यों ने असहमति को मर्यादा के साथ निभाने की शिक्षा दी है। यही वजह है कि मुसलमानों सहित अन्य पन्थों के लोग भी उन्हें आदर देते हैं। आर्य समाजी भाईयों को पौराणिक धर्माचार्यों से वाणी और व्यवहार की मर्यादा अवश्य सीख लेनी चाहिए।

¤ धार्मिक भावनाएं आहत करना ठीक नहीं
    ‘उन्हीं दिनों सुना गया था कि उस रियासत में मुस्लिम शासनकाल के मुसलमान बने हिन्दुओं के साथ उनकी जाति के हिन्दू लोग पूर्ववत् सम्बन्ध करते हैं; वे हिन्दूपन की मूर्खता के कारण बेटी देते तो हैं किन्तु लेते नहीं, जैसा कि जोधपुर राज्य के शैव प्रदेश में अभी तक प्रथा है, जिससे वहां के लोग साधारणतया परिचित हैं। स्वामी जी ने बुलाकर समझाया कि ऐसा अनर्थ क्यों करते हो? जो तुम्हारे धर्म को नहीं मानते उनसे सम्बन्ध करना योग्य नहीं।’ (म. दयानन्द स. का जीवन चरित्र, पृष्ठ 537)
    ‘हिन्दूपन की मूर्खता’ जैसे शब्द कहकर एक पूरे समाज को अपमानित करना भी आपत्तिजनक है। इससे धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं। समाज में झगड़े होते हैं और जन-धन की हानि होती है। आर्य समाजी साहित्य से नफ़रत फैलाने वाले ऐसे शब्दों को अब हटा दिया जाना चाहिए।

¤ अंग्रेज़ी राज को ‘सुराज’ बताया
    ‘मुसलमानों की जब चलती थी तो उन्होंने हम लोगों का तलवार से खण्डन किया। अब क्या अन्धेर है कि वह मुझे बातों से खण्डन करने में भी रुकावट डालते हैं ? ऐसा सुराज पाकर किसी की पोल खोलने में कभी रुक सकता हूं?‘ (म. दयानन्द स. का जीवन चरित्र, पृष्ठ 494)

¤ अंग्रेज़ ने ख़ुश होकर स्वामी जी से ‘हाथ मिलाया’
    स्वामी जी स्वयं बताते हैं-
‘जनरल राबर्टस साहब इतने प्रसन्न हुए कि हम से आकर हाथ मिलाया’
(म. दयानन्द स. का जीवन चरित्र, पृष्ठ 537)
    अंग्रेज़ बहादुर ने ख़ुश होकर हाथ मिलाया तो स्वामी जी ने भी अपना हाथ आगे बढ़ा दिया ?
वह अपनी मान्यता भी भूल गए कि गोमाँस और मदिरा का सेवन करने वाले से हाथ नहीं मिलाना चाहिए। केवल हाथ जोड़ कर नमस्ते करने से भी काम चल सकता था। इस तरह अंग्रेज़ अधिकारी को वैदिक संस्कृति का परिचय भी मिल जाता।
    यदि कोई आर्य समाजी ‘हाथ मिलाने’ को अलंकार मानता है तो ‘अंग्रेज़ शासक ने स्वामी जी से हाथ मिलाया’ पर और ज़्यादा प्रश्न खड़े होंगे।

¤ अंग्रेज़ों ने स्वामी जी की रक्षा की
    ‘यह भी कहते थे कि यदि अंग्रेजी राज्य न होता तो मैं जो इतनी बार फर्रूखाबाद आया, ब्राह्मण मुझे कभी न छोड़ते, किसी से मरवा डालते।’ (म. दयानन्द स. का जीवन चरित्र, पृष्ठ 131)
  
¤ ‘डिवाइड एंड रूल’ : अंग्रेज़ों की नीति
    स्वामी दयानन्द जी के बहुत बाद सुभाषचंद बोस ने अंग्रेज़ों की नीति का तीन शब्दों में ख़ुलासा किया-‘डिवाइड एंड रूल’ अर्थात फूट डालो और राज करो।
    स्वामी जी का मत प्रचार भारतीय समाज को बाँट रहा था। अंग्रेज़ों का मक़सद स्वामी जी के ज़रिये ख़ूब सिद्ध हो रहा था। इसीलिए वे स्वामी जी की रक्षा कर रहे थे जबकि दूसरी ओर उन्होंने सन 1857 के देशभक्तों को और उनके समर्थकों को चुन चुन कर मार डाला था।

¤  देशभक्त अपराधी, अंग्रेज़ महारानी दयालु माता?
    स्वामी जी के उपदेशों से आर्य समाजियों में अंग्रेज़ भक्ति परवान चढ़ रही थी। अंग्रेज़ यह देखकर ख़ुश थे। आर्य समाज के महान पुरोधा मुंशीराम जिज्ञासु जी के लेखन में यह मानसिकता साफ़ देखी जा सकती है। वह स्वामी जी के जीवन चरित्र की भूमिका में लिखते हैं-
    ‘सांसारिक हलचल का परिणाम सन् 1857 का विद्रोह था। उस अन्धकारपूर्ण काल में जो कुछ मार-काट हुई, जिस-जिस प्रकार के अत्याचार दोनों ओर से किये गये, उनका वर्णन करना हमारा काम नहीं है। हमें इस स्थान पर केवल उसके परिणाम से प्रयोजन है। अन्ततः महारानी का कोमल हृदय हिल गया। उनके पास प्रत्येक अत्याचार की रिपोर्ट पहुंच चुकी थी परन्तु विद्रोहियों को उनके अपराधों के दण्ड देकर हमारी महारानी ने अपना दया का हाथ फैलाया। उन्होंने समझ लिया कि प्रजा पुत्र के समान है। उन्हें विश्वास हो गया कि अपने कर्तव्य का भार वणिकों को सौंपने का यही परिणाम होना था। अपने कर्मों का फल भारतवासी भुगत चुके थे। अब पुत्रों का अधिकार है कि माता से सीधे बातचीत करें। इस शुभ सूचना की घोषणा महारानी ने कर दी जिसको भारतवर्ष में फैलाने वाला लार्ड केनिंग था।’ (म. दयानन्द स. का जीवन चरित्र, पृष्ठ 30)
¤ भारत की स्त्रियाँ व्यभिचारिणी, अंग्रेज़ महिलाएं सदाचारिणी?
  
स्वामी जी प्रश्नोत्तर के माध्यम से जिस प्रकार का ज्ञान दिया करते थे। उसे देखकर अफ़सोस ही होता है-
    ‘प्रश्न- भारत के लोग स्त्रियों को, इस प्रयोजन से कि वे व्यभिचारिणी न हों परदे में रखते हैं और ईसाई अपनी स्त्रियों को परदे में नहीं रखते और स्थान-स्थान पर भ्रमण कराते हैं। इतना होने पर भी भारत की स्त्रियां ईसाई स्त्रियों से अधिक व्यभिचारिणी दिखाई देती हैं (इसका क्या कारण है?)
उत्तर- स्त्रियों को परदे में रखना आजन्म कारागार में डालना है। जब उनको विद्या होगी वह स्वयं अपनी विद्या के द्वारा बुद्धिमती होकर प्रत्येक प्रकार के दोषों से रहित और पवित्र रह सकती हैं। परदे में रहने से सतीत्व रक्षा नहीं कर सकतीं और बिना विद्याप्राप्ति के बुद्धिमती नहीं हो सकती हैं। परदे में रखने की प्रथा इस प्रकार प्रचलित हुई कि जब इस देश के शासक मुसलमान हुए तो उन्होंने शासन की शक्ति से जिस किसी की बहू-बेटी को अच्छी रूपवती देखा, उसको अपने शासनाधिकार से बलात् छीन लिया। उस समय हिन्दू विवश थे; इस कारण उनमें सामना करने की सामथ्र्य न थी। सो मूर्खों ने उसको पूर्वजों का आचार समझ लिया। देखो, मेमों अर्थात् अंग्रेज़ों की स्त्रियों को, वे भारत की स्त्रियों की अपेक्षा कितनी साहसी, विद्यावती, बुद्धिमती और सदाचारिणी होती हैं।’ (म. दयानन्द स. का जीवन चरित्र, पृष्ठ 289)
स्वामी जी परदे के विषय में चाहे जो कहते लेकिन कम से कम वह यह तो कह देते कि नहीं, भारत की स्त्रियां ईसाई स्त्रियों से अधिक व्यभिचारिणी नहीं होतीं। तुम्हारी यह धारणा बिल्कुल झूठ है।
(99) स्वामी जी महिलाओं के लिए सह-शिक्षा, गोमाँसाहार, माँसाहार, मदिरा सेवन, स्त्री-पुरूषों के सामूहिक नृत्य और पर-पुरूषों के देखने व छूने को सदाचार के विपरीत मानते थे। अंग्रेज़ महिलाएं यह सब करके भी उनकी नज़र में भारत की स्त्रियों की अपेक्षा अधिक साहसी, विद्यावती, बुद्धिमती और सदाचारिणी क्यों ठहरीं?
अंग्रेज़ महिलाएं स्वामी दयानंद जी की शिक्षा के बिना ही साहसी, विद्यावती, बुद्धिमती और सदाचारिणी बन सकती हैं तो फिर भारत की नारियां भी उनका अनुकरण करके अपने अंदर इन अच्छे गुणो को पैदा कर सकती हैं।
स्वामी जी का यह कहना फ़िज़ूल ही ठहरा कि ‘अच्छा तो वेदमार्ग है, जो पकड़ा जाय तो पकड़ो, नहीं तो सदा गोते खाते रहोगे।’ (सत्यार्थ., एकादश, पृष्ठ 248)

¤ मुस्लिम शासन काल से पहले अपहरण और बलात्कार विवाह का एक ­प्रकार माने जाते थे
जैसे भारतीय स्त्रियों के अधिक व्यभिचारिणी होने की घृणित कल्पना बिल्कुल झूठी है। ऐसे ही यह भी सरासर झूठ है कि हिन्दुओं ने अपनी औरतों को परदा इसलिए करवाया क्योंकि मुसलमान अपने शासन काल में उनकी औरतों को सुन्दर देखकर उठा ले जाया करते थे।
क्या मुसलमान हिन्दू पुरूषों की सुन्दरता देखकर नहीं समझ सकते थे कि उनके घरों की औरतें भी सुन्दर होंगी ?
घूंघट निकालने वाली हिन्दू महिलाएं भी अपनी कमर व नाभि प्रदेश खुला रखती हैं। उनके हाथ, पैर, कमर और पेट को देखकर उनके रूप, रंग और रख-रखाव का अंदाज़ा कोई भी लगा सकता है। ऐसे में परदा किसी अपहरणकर्ता के विचार को कैसे रोक सकता है ?
(100) क्या मुसलमानों के शासन काल से पहले आर्य राजा हिन्दू औरतों को जबरन उठा कर नहीं ले जाते थे ?
रावण के द्वारा सीता जी के अपहरण की घटना सब जानते हैं।
भारतीय इतिहास बताता है कि पितामह भीष्म भी 3 हिन्दू राजकुमारियांेे अंबा, अंबालिका और अंबिका का अपहरण करके ले आए थे। जो कि काशीराज की बेटियां थीं। जिस काल में राजकुमारियों के अपहरण होते रहे हों, उस काल में आम हिन्दू लड़कियां कितनी सुरक्षित होंगी ?, समझा जा सकता है। आर्य राजाओं की ऐसी बहुत सी घटनाएं इतिहास में दर्ज हैं। जो कि मुसलमानों के शासन काल से पहले की हैं।
पृथ्वीराज चैहान द्वारा सन् 1175 ई. में क़न्नौज के राजा जयचन्द राठौड़ की इच्छा के विरुद्ध उसकी बेटी संयोगिता को उठा ले जाना भी मुस्लिम शासन काल से पहले की घटना है। इसी घटना से आहत होकर राजा जयचन्द ने शहाबुद्दीन ग़ौरी के साथ मिलकर पृथ्वीराज चैहान के विरुद्ध युद्ध लड़ा। यह घटना भी सबको ज्ञात है।
स्वामी दयानन्द जी ने अपहरण और बलात्कार को भी विवाह का ही एक प्रकार माना है। स्वामी जी ने मनु स्मृति के आधार पर वैदिक धर्म में विवाह के 8 प्रकार बताते हुए सातवें और आठवें प्रकार के विवाह का वर्णन इन शब्दों में किया है- ‘‘लड़ाई करके बलात्कार अर्थात् छीन झपट वा कपट से कन्या का ग्रहण करना ‘राक्षस’। शयन वा मद्यादि पी हुई पागल कन्या से बलात्कार संयोग करना ‘पैशाच’।’’ (सत्यार्थप्रका्य, चतुर्थसमुल्लास, पृ. 61,62)

¤ वेद-स्मृति के अनुसार परदा व्यवस्था
   स्वामी जी ने यह भी नहीं सोचा कि क्या मुसलमानों ने भी अपनी औरतों को किसी और के उठा ले जाने के कारण परदा करवाना शुरू किया था ?
हक़ीक़त यह है कि मुसलमानों में परदा उनके धर्म की देन है। हिन्दुओं में परदे के पीछे भी उनके अपने धर्म शास्त्र हैं।
यहूदियों और इसाईयों में भी परदा होता है। कुछ अन्तर भले ही हो लेकिन धर्म का पालन करने वाली यहूदी और ईसाई औरतें, सब परदा करती हैं। सबके धर्म शास्त्रों में परदे की व्यवस्था है।
(101) स्वामी जी स्वयं कहते हैं कि लड़कियों की पाठशाला में 5 वर्ष का बालक भी न जाने पाए और लड़कों की पाठशाला में 5 वर्ष की लड़की भी न जाने पाए। लड़कियों की पाठशाला में टीचर और स्टाफ़ केवल औरतें हों। लड़कों की पाठशाला में टीचर और स्टाफ़ सब पुरुष हों। यह परदे की व्यवस्था नहीं तो और क्या है?
स्वामी जी ने विद्या प्राप्ति के काल में लड़के के द्वारा महिलाओं को और लड़कियों द्वारा पुरुषों को देखने और आपस में बात करने तक पर पाबंदी लगाई है। पर-स्त्री या पर-पुरुष को देखने व बात करने को उन्होंने मैथुन का ही एक प्रकार माना है। इतना सख़्त परदा तो यहूदी, ईसाई व मुस्लिम, किसी में भी नहीं पाया जाता।
स्वामी जी ने ये पाबंदियाँ वेद-स्मृति के आधार पर ही लगाई हैं।
स्वामी जी से पहले भी हिन्दू भाई स्मृति के आधार पर अपनी महिलाओं को परदा करवाते थे। उनके परदे की शुरूआत का कारण मुसलमानों द्वारा हिन्दू लड़कियों के अपहरण को बताना बिल्कुल झूठ है।
मुसलमानों पर ऐसे झूठे आरोप लगाने का मक़सद हिन्दुओं के दिलों में मुसलमानों के प्रति नफ़रत भरना था। जिससे भारतीय समाज की एकता और बल नष्ट हुआ। इसका सीधा लाभ अंग्रेज़ों को मिला।
जब तक स्वामी जी जीवित रहे तब तक अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ हिन्दू-मुस्लिम एकजुट न हो सके। उनकी मौत के बाद भी हिन्दू मुसलमानों को एकजुट होने में काफ़ी समय लग गया।

¤ भारतीय नारी के हाथ का नहीं खाया स्वामी जी ने
    महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र की विड्ढयसूची में पृष्ठ 8 पर लिखा है कि
    ‘भंगन का पकाया भोजन ग्रहण नहीं किया’
    यह घटना स्वामी जी के द्वारा किसी के वर्ण का निश्चय जन्म के आधार पर करने का एक और प्रमाण है। देहरादून की इस घटना का पूरा विवरण पृष्ठ 433 पर दिया गया है। ब्रह्म समाज के सदस्य बाबू कालीमोहन घोड्ढ के निमंत्रण को लेकर स्वामी जी के शिष्य पंडित कृपा राम गौड़ ने उनसे कहा-‘आपने बड़ी भूल की जो कालीमोहन के यहां खाना स्वीकार किया क्योंकि यह मेरी आंखों देखी बात है कि उनके यहां एक भंगन खाना पकाया करती थी। ...फिर वह थाल वापस करके मेरे लाए हुए भोजन को खाना आरम्भ किया।’
    यह घटना स्वामी के द्वारा जन्म के आधार पर भेदभाव और छूतछात करने का भी प्रमाण है।
(102) इसका नाम समाज सुधार है तो फिर बिगाड़ किसे कहा जाएगा?
आज जातिसूचक शब्द कहने पर भी क़ानूनी पाबंदी है। स्वामी जी की शिक्षाएं हिन्दू समाज की एकता और समरसता में भी बाधक हैं। आज ऐसी बातों के मानने और सिखाने पर क़ानूनी रूप से प्रतिबंध है और हर तरफ़ बराबरी और भाईचारे की बात हो रही है। जो कि इसलाम की शिक्षा है।

¤ ऊँच-नीच और छूत-छात मिटी, बराबरी और भाईचारा बढ़ा
स्वामी जी ने मिथ्या मत के मिटने की प्रार्थना करते हुए कहा था कि
‘परमात्मा सब के मन में सत्य का ऐसा अंकुर डाले कि जिससे मिथ्या मत शीघ्र प्रलय को प्राप्त हों।’ (सत्यार्थ प्रकाश, दशमसमुल्लास, पृष्‍ठ 185)
स्वामी जी की प्रार्थना का नतीजा यह हुआ कि स्वयं उन्हीं का मत काल कवलित हो गया। उन्होंने इसलाम के विरोध में वर्ण व्यवस्था को पुनर्जीवित करने की कोशिश की लेकिन हुआ क्या?
हुआ यह कि वर्ण व्यवस्था लुप्त हो गई और ईरान से लेकर भारत तक इसलाम आर्य जाति में साक्षात होता जा रहा है और आप इस महान परिवर्तन के साक्षी बन रहे हैं। परमेश्वर ने लोगों के मन में सत्य का अंकुर डाल कर काल के द्वारा कैसा अद्भुत निर्णय दिया है!
आज आर्य आज़ाद हैं और आर्यों के देश भी लेकिन फिर भी वे वर्ण व्यवस्था का पालन नहीं करते। अगर वे उसका पालन करना चाहें तो भी नहीं कर सकते। आर्य समाजी भाई स्वामी जी की केवल उन्हीं बातों का पालन कर पा रहे हैं जो कि इसलाम के अनुकूल हैं और उनकी जो बातें इसलाम के विरुद्ध हैं, वे चल ही नहीं पाईं। चलने वाली बात केवल इसलाम की है। अब चाहे इसलाम को इसलाम कहकर मान लो या फिर उसकी बातों को उसका नाम लिए बिना मानते रहो।
अब आपके सामने वर्ण व्यवस्था या इसलाम, ये दो विकल्प नहीं हैं बल्कि बस एकमात्र इसलाम ही है।
स्वामी दयानन्द जी की ग़लती यह रही कि उन्होंने वैदिक धर्म का अर्थ वर्ण व्यवस्था समझ लिया। हक़ीक़त यह है कि नियोग की भाँति ऊँच-नीच और छूत-छात की बातें वेद और स्मृतियों में क्षेपक हैं। हम ऐसा मानते हैं क्योंकि हम क़ुरआन के माध्यम से वैदिक धर्म के मूल स्वरूप को जानते हैं। स्वामी जी भी ऐसा मान लेते तो वैदिक धर्म और इसलाम का अन्तर ही मिट जाता। तब वह धर्म को साक्षात कर पाते जो कि बराबरी और भाईचारे के रूप में प्राकृतिक रूप से सहज ही होता जा रहा है।

¤ अंत में झूठ का पर्दाफ़ाश हो जाता है
  स्वामी जी बताते हैं कि
    ‘...चाहे कितनी भी चतुराई करे परन्तु अन्त में सच-सच और झूठ-झूठ हो जाता है।’ (सत्यार्थ प्रकाश,त्रयोदश.,पृ.349)
अब स्वामी जी के इस सिद्धान्त के आधार पर स्वामी जी का अन्त देखते हैं। आप यह जान ही चुके हैं कि अन्तकाल में उनका हवन छूट चुका था। मृत्यु वाले दिन वह स्नान भी नहीं कर पाए थे। अब उनके बिल्कुल अन्तिम वाक्य देखिए। मृत्यु वाले दिन अर्थात 30 अक्तूबर 1883 ई. को शाम के 6 बजे स्वामी जी  पलंग पर सीधे लेटे हुए थे। उन्होंने कहा-
‘हे दयामय, हे सर्वशक्तिमान् ईश्वर, तेरी यही इच्छा है, तेरी यही इच्छा है, तेरी इच्छा पूर्ण हो, अहा! तैने अच्छी लीला की।’ (महर्षि दयानन्द स. का जीवन चरित्र, पृ.830)
स्वामी जी ने अपने साहित्य में कहीं भी ईश्वर और सत्पुरूड्ढों के कर्मों को लीला नहीं कहा है लेकिन अन्तकाल आया तो जाते जाते वह ईश्वर के कर्म को भी ‘लीला’ कह गए। इससे समझा जा सकता है कि दुनिया से विदा होते समय उनके दिल में ईश्वर के प्रति किस प्रकार के भाव थे।
स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश में धूर्त, ठग और धोखेबाज़ों को ‘पोप’ की संज्ञा देकर उनके बुरे कामों को ‘लीला’ कहा है। उन्होंने लीला का अर्थ बताते हुए कहा है-
‘अर्थात् राजा और प्रजा को विद्या न पढ़ने देना, अच्छे पुरूड्ढों का संग न होने देना, रात दिन बहकाने के सिवाय दूसरा कुछ भी काम नहीं करना है।’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादश., पृ.191)
क्या यह मानना सही है कि ईश्वर लीला करता है?
स्वामी जी ईश्वर में इच्छा का होना नहीं मानते थे। वह कहते थे-
‘...ईश्वर में इच्छा का तो सम्भव नहीं.’ (सत्यार्थ प्रकाश,सप्तम.,134)
इसके बावजूद उन्होंने अपने अंतिम कथन में ईश्वर में इच्छा का होना भी माना है। इस तरह हम देखते हैं कि जिन बातों को वह ईश्वर की महिमा के प्रतिकूल मानते थे। अपने अंत के एक वाक्य में वह ईश्वर के लिए ऐसी दो बातें कह बैठे। अपनी मान्यताओं के अनुसार जीने में तो वह असफल रहे लेकिन मरते समय वह उन्हें स्पष्टतः नकारने में पूरी तरह सफल रहे। उन्होंने अपनी अंतिम भावनाओं को पूरी निर्भीकता से व्यक्त कर दिया। यह वास्तव में ही बड़े साहस का काम है।
(103) जिन मान्यताओं को स्वयं स्वामी जी ने ही नकार दिया है, आर्य समाजी भाई-बहनों द्वारा उन्हें ढोते रहने का क्या औचित्य है?

¤ ऋषि कौन होता है?
   ‘अर्थ-ऋषि कैसे होते हैं ?, जो धर्म को साक्षात करने वाले आप्त पुरूष होते हैं, जो सब विद्याओं को यथावत् जानते हैं।’ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पृष्‍ठ 10)

¤ ज्ञान किसे कहते हैं?
   ‘यथार्थदर्शनं ज्ञानमिति’ जिसका जैसा गुण, कर्म, स्वभाव हो उस पदार्थ को वैसा ही जानकर मानना ही ज्ञान और विज्ञान कहलाता है और उससे उल्टा अज्ञान।  (सत्यार्थ प्रकाश, सप्तम., पृष्‍ठ 125)
(104) क्या ईश्वर, जीव, प्रकृति, परमाणु, ब्रह्माण्ड, किरण, मौसम, वेद, मनुस्मृति, शूद्र, नियोग, न्याय, शिक्षा, आवागमन और सूर्यादि पर मुनष्‍यों के बसे होने की कल्पनाओं को सामने रखते हुए यह कहा जा सकता है कि स्वामीजी को सब विद्याओं का यथावत ज्ञान था?
(105) यदि उन्हें सब विद्याओं का यथावत ज्ञान नहीं था तो क्या उन्हें ऋषि बल्कि महर्षि कहना उचित है?
ऐसा नहीं है कि दयानन्दजी अपनी वास्तविक स्थिति से अवगत नहीं थे। एक बार एक आदमी ने जब उन्हें ऋषि कहा तो उन्होंने उसे यह कहा था - वत्स, यदि मैं महर्षि कणाद, जैमिनी के समय में होता तो, मैं पंडित ही कहलाता। ऋषियों के अभाव में मुझे लोग महर्षि कहते हैं। (युगप्रवर्तक महर्षि, पृष्‍ठ 128)
यह सब मानने के बावजूद वह ख़ुद को ‘आप्त‘ पुरुष भी कह गए हैं। देखिए-
‘(तद्वक्तारमवतु) सो आप मुझ आप्त सत्यवक्ता की रक्षा कीजिए कि जिससे आप की आज्ञा में मेरी बुद्धि स्थिर होकर, विरूद्ध कभी न हो। क्योंकि जो आपकी आज्ञा है, वही धर्म है और जो विरुद्ध है वही अधर्म है।’ (सत्यार्थप्रकाश, प्रथमसमुल्लास, पृष्‍ठ 11)

¤ स्वामी जी की मिसाल उन्हीं के शब्दों में
   ‘यत्र देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायते’ जिस देश में कोई भी वृक्ष न हो तो उस देश में एरण्ड का वृक्ष ही सबसे बड़ा और अच्छा गिना जाता है। (सत्यार्थप्रकाश, त्रयोदशसमुल्लास, पृ.344)
‘इससे जानना चाहिए कि यह केवल साधारण सच्चा अविद्वान था, न विद्वान्, न योगी, न सिद्ध था।’ (सत्यार्थप्रकाश, त्रयोदशसमुल्लास, पृ.347)

¤ सत्य को स्वीकारना बड़े साहस का काम है
     ‘मनुष्‍य का आत्मा सत्याऽसत्य का जानने वाला है अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है।’ (सत्यार्थप्रकाश, भूमिका, पृष्‍ठ 2)
कृपया अपनी अन्तरात्मा की आवाज़ सुनें, अपनी आत्मा का हनन न करें अन्यथा ईश्वर की ओर से दण्डस्वरूप कठोर यातना भोगनी पड़ेगी । वेद आज्ञा स्पष्‍ट है- ‘स्वयं यजस्व स्वयं जुषस्व’ तू ही कर्म कर और तू ही उसका फल भोग। (यजुर्वेद 3,15)
‘जो मनुष्‍य जीते हुए अपनी आत्मा का हनन करते हैं वे मरने के बाद अंधकारमय असुरों के लोक को जाते हैं।’ (यजुर्वेद 40,3)

¤ सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का क्या करें?
    ‘जो कोई इन मिथ्या ग्रन्थों से सत्य का ग्रहण करना चाहे तो मिथ्या भी उसके गले लिपट जावे। इसलिए ‘असत्यमिश्रं सत्यं दूरतस्याज्यमिति’ असत्य से युक्त ग्रन्थस्थ सत्य को भी वैसे छोड़ देना चाहिये जैसे विषयुक्त अन्न को।’ (सत्यार्थप्रकाश, तृतीय., पृष्‍ठ 48)
जिन किताबों में सच के साथ झूठ भी मिला होता था उन्हें स्वामी बिरजानन्द जी नदी में फिकवा दिया करते थे। स्वयं दयानन्द जी का आचरण भी यही था और इसी की शिक्षा उन्होंने अपने मानने वालों को दी है। अब उनके साहित्य में भी सच के साथ झूठ मौजूद है तो अपने मानने वालों के लिए उनका आदेश है कि
‘थोड़ा सत्य तो है परन्तु इसके साथ बहुत सा असत्य भी है इससे ‘विषसम्पृक्तान्नवत् त्याज्याः’ जैसे अत्युत्तम अन्न विष से युक्त होने से छोड़ने योग्य होता है वैसे ये ग्रन्थ हैं।’  (सत्यार्थप्रकाश, तृतीय. पृष्‍ठ 48)
(106) क्या वेदमतानुयायी अपने गुरू के पद्-चिन्हों पर चलते हुए दयानन्दकृत साहित्य को विषयुक्त अन्न के समान त्यागना पसन्द करेंगे?

¤ स्वामी जी को सफलता नहीं मिली
    स्वामी दयानन्द जी ने देखा कि हिन्दू समाज को धर्म के नाम पर पाखण्ड, भ्रष्‍टाचार और नैतिक पतन का शिकार बना दिया गया है। वह ईश्वर के वास्तविक स्वरूप और धर्म के मर्म से वंचित हो गया है। अज्ञानी लोगों ने धर्म को व्यवसाय बना लिया है। वे मूर्तिपूजा और ग्रहपूजा के नाम पर लोगों से रूपया वसूल कर रहे हैं। स्वामी जी ने अपनी जान ख़तरे में डाली और धर्म के धंधेबाज़ों का विरोध किया। निःसंदेह यह उनका अच्छा प्रयास था लेकिन उनकी कोशिशों से मूर्तिपूजा और ग्रहपूजा आदि बंद नहीं हुई।
स्वामी दयानन्द जी सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि वसुओं और सृष्टि की उत्पत्ति से परमेवर का वास्तविक प्रयोजन नहीं जान पाए।
स्वामी जी वेद और मनु-स्मृति की रचना काल जानने में भी असफल रहे।
स्वामी जी ने मनुष्य की उत्पत्ति का जो काल बताया है, उसे भी आधुनिक विज्ञान ने ग़लत सिद्ध कर दिया है।
स्वामी जी मानते थे कि हिन्दू समाज का भला वर्ण व्यवस्था की ऊँचनीच और छूतछात को मानने में है। इसीलिए उन्होंने वैदिक धर्म के नाम पर वर्ण व्यवस्था की स्थापना की कोशिश की लेकिन वह इस काम में भी सफल न हो सके।
न्याय के लिए अपने ही वर्ण के गवाहों को लाने और क़ातिल को बिना विचारे मार डालने की बात कहकर वह न्याय की अवधारणा को समझने और समझाने में भी असफल रहे।
स्वामी जी अपना वास्तविक जन्म स्थान और जाति छिपाने में सफल रहे।
स्वामी जी का बताया वेदमंत्र भी यजुर्वेद में नहीं मिल पाया।
वह अपने कल्पित वेदार्थ के अनुसार गुदा से सांप लेने में भी असफल रहे।
स्वामी जी श्वास-प्रश्वास की भांति सुबह-शाम हवन करने में भी असफल रहे।
अग्नि आदि तत्वों की उत्पत्ति को भी वह समझ न पाए और ग़लत विवरण देकर चले गए।
वह अमर भी न हो पाए और न ही मृत्यु समय के कष्टों से बच पाए।
न उन्हें कोई ‘योगी गुरु’ मिला और न ही उन्हें ‘सच्चे शिव’ के दर्शन हुए, जिसके लिए वह घर से निकले थे।
वेदों को भी वह समझ नहीं पाए और ग़लत अर्थ कर गए।
संसार के क़ैदखाने से भी किसी को मुक्ति न दिला सके बल्कि वह खुद ही मुक्ति न पा सके।
हिन्दू धर्म नगरियों के विद्वानों से उन्होंने शास्त्रार्थ ज़रूर किया लेकिन किसी एक नगर के विद्वानों से या आम नागरिकों से भी वह अपनी मान्यताएं मनवाने में असफल रहे।
उन्होंने अपने शिष्यों से अपनी मान्यताओं का पालन करवाने में असफल रहने को भी स्वयं स्वीकार किया है।
वह अपने प्राण गंवाने का कारण भी न बता पाए।
उनका वेदभाष्‍य भी अधूरा ही रह गया।
उन्होंने दूसरा जन्म लेकर उसे पूरा करने की बात कही लेकिन वह दूसरा जन्म भी यहां नहीं ले पाए क्योंकि आवागमन होता नहीं है।
उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की लेकिन वह भी अपनी स्थापना के उद्देश्य से भटक गया है-
‘किन्तु हमारी शिरोमणि सभा अभी तक हठतावश मयासुर के मार्ग पर चल रही है।’ (उपक्रमणिका, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पृष्‍ठ 8)

¤ सच्चे गुरु की खोजः वर्तमान समाज की ज़िम्मेदारी
    स्वामी जी के दर्शन और उनके जीवन को देखने के बाद एक ऐसे आदमी की तस्वीर सामने आती है जो कि अपने मिशन में पूरी तरह असफल रहा। अपने अज्ञान और हठ के कारण वह विधवाओं, शूद्रों और मुसलमानों को उनके मानवोचित अधिकारों से वंचित करते रहे। इसे समाज सुधार नहीं कहा जा सकता। जो उन्हें अपना गुरू मानते हैं, वे भी उनके मार्ग पर चलने में, वैदिक संस्कारों का पालन करने में असफल रहे। एक गुरू की ज़रूरत मानव मात्र को हमेशा से रही है और आज भी है।
वह कौन है? आर्य बन्धुओं के लिए यह खोज का विषय है क्योंकि यह प्रमाणित हो चुका है कि स्वामी दयानन्द जी को अपनी खोज में कोई सच्चा गुरु न मिला और वह स्वयं भी इस ज़रूरत को पूरा नहीं कर पाए। उनके जीवन के कटु अनुभवों और वेदार्थ को समझ पाने में उनकी और उनसे पूर्व के भाष्यकारों की नाकामी से पता चलता है कि वैदिक आर्य जाति काफ़ी समय से वास्तविक और पूर्ण ज्ञानी गुरू से रिक्त है। यह दुखद है, लेकिन सच यही है।
इसके बावजूद हमें यक़ीन है कि सम्पूर्ण भारत जल्द ही अपना खोया हुआ धर्म, सत्य और गौरव प्राप्त कर लेगा क्योंकि भारतवासी स्वभाव से ही ज्ञानाकांक्षी हैं। ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में अब जाति, भाषा और राष्‍ट्र की बेबुनियाद दीवारें भी ढहती जा रही हैं। मशहूर चीनी कहावत है कि
‘जब विद्यार्थी तैयार हो जाता है तो गुरू उपस्थित हो जाता है।’

¤ जो ढूंढता है वह पाता है लेकिन ...
    गुरू की खोज का अभियान जारी रखिये क्योंकि जो ढूंढता है वही पाता है। उन जगहों पर भी तलाश कीजिए जहाँ अभी तक तलाश न किया हो। हो सकता है कि सच्चा गुरू उस रूप में और उस परिधि में मिले जिसकी कल्पना भी न की हो। सच्चा गुरू उस वेश-वंश, देश और भाषा में मिले जिसे स्वीकारना निजी अहंकार और गर्व पर चोट करता हो। बहरहाल कल्याण के लिए सच्चा गुरू अनिवार्य है। अब वह जैसे भी मिले और जहाँ भी मिले।
‘धर्म को साक्षात करना और सब विद्याओं का यथावत जानना’ उसका मूल लक्षण है। आप उसे इस लक्षण से पहचान जाएंगे। ऐसे ही ‘आप्त पुरूड्ढ’ के उपदेश को मानने के लिए स्वयं स्वामी दयानन्द जी भी कह गए हैं-
‘जो पृथिवि से लेके परमेश्वर पर्यन्त सब पदार्थों को यथावत् साक्षात् करना और उसी के अनुसार वत्र्तना है इसी का नाम आप्ति है, इस आप्ति से जो युक्त हो उसको ‘आप्त’ कहते हैं। उसी के उपदेश का प्रमाण होता है, इससे विपरीत मनुष्य का नहीं.’ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदोत्पत्ति., पृ.14)
देखिये, जानिये, सोचिये, समझिये और फिर फैसला कीजिए क्योंकि आपके फैसले से ही आपका भविष्‍य निर्धारित होता है। आपके विचार से ही आपके कर्म फूटते हैं और अपने कर्मों का फल भी आपको स्वयं ही भोगना है। आप सत्य की खोज और स्वीकार के मार्ग पर आगे बढ़कर अपना जीवन स्वर्ग बनाना चाहते हैं, मुक्ति, आनंद और ईश्वर पाना चाहते हैं या फिर घृणा, तिरस्कार और अपने अंहकार की ऊंची दीवार से ही सिर टकराते रहना चाहते हैं?
पानी वहीं मिलेगा जहाँ  कि वास्तव में वह मौजूद है। ‘मृगमरीचिका’ से किसी को आज तक पानी नसीब नहीं हुआ तो आपको कैसे मिल जाएगा?


¤ ढूंढिये, लेकिन वहाँ, जहाँ कि वह सचमुच है
    (107) ‘...सत्य असत्य के ग्रहण व त्याग करने में सदा उद्यत रहने वाले आर्य क्या दूसरों को ही उपदेश देते रहेंगे? क्या वे स्वयं सत्य पक्ष को ग्रहण करने में हठवश संकोच ही करते रहेंगे ?’  (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पृष्‍ठ 7)
(108) ‘‘क्या ऐसे व्यक्ति वेद की ‘असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः ताँस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः’ इस व्यवस्था से बच सकेंगे?’’ (सत्यार्थप्रकाश, प्रकाशकीय पृष्‍ठ)

¤ वैदिक विज्ञान से सत्य ढूंढना सीखिए
   ‘मनुष्‍य का आत्मा सत्याऽसत्य का जानने वाला है’ (सत्यार्थप्रकाश, भूमिका, पृष्‍ठ 2)
‘‘यन्मनसा ध्यायति तद्वाचा वदति, यद्वाचा वदति तत् कर्मणा करोति यत् कर्मणा करोति तदभिसम्पद्यत।। यह यजुर्वेद के ब्राह्मण का वचन है।
जीव जिस का मन से ध्यान करता उस को वाणी से बोलता, जिस को वाणी से बोलता उस को कर्म से करता, जिस को कर्म से करता उसी को प्राप्त होता है। (सत्यार्थप्रकाश, प्रथमसमुल्लास पृष्ठ 13)
यह सत्य है। आधुनिक विज्ञान ने चेतन और अवचेतन मन पर शोध करके बताया है कि यदि आप शंका और दुविधा के कारण कोई फ़ैसला नहीं कर पा रहे हैं तो आप सही फ़ैसले पर पहुंचने का संकल्प करके उस मामले को अपने अवचेतन मन के हवाले कर दीजिए। आप सही फ़ैसले पर पहुंच जाएंगे। अवचेतन मन से सोने से ठीक पहले और सुबह को जागने के ठीक बाद सबसे अच्छी तरह काम लिया जा सकता है।
आप रात को सोते समय अपने ्यरीर के सभी अंगों को शिथिल कर लीजिए। अब सत्य पाने की सच्ची कामना के साथ, अधिकारपूर्वक बार-बार दोहराएं कि
‘मेरी आत्मा सत्य को जानती है। मैं निष्पक्ष हूँ और सत्य-मार्ग पर चलता हूँ।’
आप इस की एक माला भी जप सकते हैं यानि 108 बार। फिर आप धीरे धीरे प्रेमपूर्वक ‘सत्य, सत्य, सत्य’ कहते हुए नींद में चले जाएं। इस क्रिया को नित्य कीजिए। आपका अवचेतन मन इस पर प्रतिक्रिया करेगा और वह आपके जीवन में सत्य के मार्ग पर जाने की परिस्थितियाँ प्रकट कर देगा। जब आपका चेतन मन सो जाता है, तब भी आपका अवचेतन मन जागता रहता है। यह सृष्टि नियम है। यह महान वैदिक विज्ञान है। आप इस वैदिक रीति से सत्य का सीधा मार्ग आसानी से पा सकते हैं।
सत्य को अरबी में ‘हक़’ कहते हैं। हक़ अल्लाह का एक नाम भी है। वैदिक बन्धु भी सत्य को ईश्वर का एक नाम मानते हैं। यह बिन्दु दोनों को एक कर देता है। इल्मुल आदाद के अनुसार हक़ शब्द के अदद 108 हैं और हिन्दुओं की माला में भी 108 दाने होते हैं। ‘हक़’ नाम के जाप से मुस्लिम सूफ़ी बड़े बड़े काम लेते हैं। जिन्हें अल्लाह के नाम और उनका अर्थ बताने वाली किताबों में देखा जा सकता है।
सत्य और रहस्य आपके सामने प्रकट हो चुका है। अब करना आपको है और पाना भी आपको ही है।

¤ माल, बेटे, बारिश और भरपूर फ़सल पाने के लिए
    जल प्लावन वाले महर्षि मनु (अर्थात हज़रत नूह अलैहिस्सलाम) ने उस पालनहार से क्षमा याचना करने के लिए कहा है। यह विधि सरल, चमत्कारी और अचूक है। यह मनुष्य की चेतना को पवित्र करके उसे वरदान का पात्र बनाती है। कुरआन में महर्षि मनु का उपदेश सुरक्षित है। जिसमें वह कहते हैं कि
‘‘और मैंने कहा, अपने रब से क्षमा की प्रार्थना करो। वह बादल भेजेगा तुमपर ख़़ूब बरसने वाला। और वह माल और बेटों से तुम्हें बढ़ोतरी प्रदान करेगा, और तुम्हारे लिए बाग़ पैदा करेगा और तुम्हारे लिए नहरें प्रवाहित करेगा। -कुरआन, सूरा ए नूह, आयत 10-12
अतः जब आप ये दो शब्द ‘‘अस्तग़-फ़िरुल्लाह’ अर्थात मैं अल्लाह से माफ़ी चाहता हूँ.’’ कहते हैं तो आप वरदान के पात्र बनते हैं।
आप अपने शब्दों में भी क्षमा की प्रार्थना कर सकते हैं। पूरे मनोयोग से की गई यह प्रार्थना बुरी आदतें छोड़ने और अच्छी आदतें बनाने में मदद करती है। जिन लोगों ने आपका हक़ मारा है या आपको कभी सताया है। आप ख़ुद भी उन लोगों को क्षमा कर दीजिए। जो आप देंगे, वही आपकी तरफ़ पलट कर आएगा। जिस पैमाने से आप दूसरों को नापते हैं, उसी पैमाने से आपको नापा जाता है।
 आप जो चीज़ पाना चाहते हैं, उसकी नीयत (संकल्प) अपने मन में अच्छी तरह जमा लीजिए। अब आप अपने दयालु पालनहार से प्रेम की भावना के साथ रोज़ाना रात को सोते समय और फिर सुबह को उठते ही केवल 5-5 मिनट क्षमा की प्रार्थना कीजिए। आप दिन में अपने काम करते हुए भी अपना ध्यान अपने संकल्प पर लगाएं रखें कि आपको क्या चीज़ पानी है। बीच बीच में क्षमा याचना की प्रार्थना भी करते रहें। जब आपको यह करते हुए चार-छः हफ़्ते गुज़र जाएंगे तो क्षमा का यह भाव आपकी चेतना का हिस्सा बन जाएगा और आपकी चेतना शुद्ध हो जाएगी। तब आपकी इस प्रार्थना का फल आपके सामने आना शुरू हो जाएगा।
आप बढ़ती महंगाई के इस दौर में अपनी आमदनी को कई गुना ज़्यादा बढ़ाकर अपनी आर्थिक चिंताओं से मुक्ति पा सकते हैं। क्षमा के वरदान आपकी ज़िन्दगी को ख़ुशहाल बना सकते हैं। माल, बेटे, बारिश और फ़सल की बढ़ोतरी या किसी भी भौतिक पदार्थ को पाने के लिए करोड़ों लोग शिर्क (बहुदेववाद), बेईमानी और तरह-तरह के जुर्म करते हैं या फिर अकेले भारत में ही हर साल लाखों लोग मायूस होकर आत्महत्या कर लेते हैं। उन्हंे जान लेना चाहिए कि यह सब करने की कोई ज़रूरत नहीं है। वे अपनी ज़रूरतों और अपने अरमानों को सही विधि से ‘अस्तग़फ़ार’ करके आसानी से पा सकते हैं।
जो लड़कियां विवाह योग्य हो चुकी हैं और उनके विवाह के लिए उचित वर नहीं मिल रहा है या धन का प्रबन्ध नहीं हो पाया है, यह विधि उनके मरते हुए सपनों के लिए संजीवनी है। ऐसे ही बेरोज़गार और अविवाहित युवक ‘क्षमा याचना’ के सही विधान का पालन करके अच्छा रोज़गार और जीवनसाथी पा सकते हैं। मैंने और मेरे दोस्तों ने अपनी ज़िन्दगी में और अपने परिचितों की ज़िन्दगी में अस्तग़फ़ार (क्षमा) से हालात बदलने का अनुभव बहुत बार किया है।

¤ क्षमा से बीमारी का इलाज भी संभव है
अधिकतर लोग आधुनिक वैज्ञानिक रिसर्च के विषय में नहीं जानते। ऐसे में उन्हें क्षमा के विषय में ये सभी बातें अतिश्योक्ति लग सकती हैं। ऐसे लोगों को डॉ. जोसेफ़ मर्फ़ी की किताब The Power of Your Subconcious Mind ज़रूर पढ़नी चाहिए। दुनिया की 40 से ज़्यादा भाषाओं में इसकी करोड़ों प्रतियाँ बिक चुकी हैं। इसमें उपरोक्त सभी बातों के अलावा यह भी बताया गाया है कि क्षमा की उपचारक शक्ति से किसी बीमारी का इलाज भी किया जा सकता है। इस पुस्तक के हिन्दी अनुवाद से एक अंश यहाँ दिया जा रहा है-
‘आज की मनोदैहिक चिकित्सा में इस बात पर लगातार ज़ोर दिया जा रहा है कि द्वेष, दूसरों की आलोचना, पश्चाताप और शत्रुता कई रोगों के कारण हैं, जिनमें अथ्र्राइटिस से लेकर हृदय रोग तक शामिल हैं। इन नकारात्मक भावनाओं से उत्पन्न तनाव सीधे शरीर के प्रतिरोधक तंत्र को प्रभावित करता है, जिससे आप संक्रमण और रोग का शिकार हो जाते हैं।
तनाव संबंधी विकारों के विशेषज्ञ बताते हैं कि दुव्र्यवहार के शिकार, धोखा खा चुके या आहत लोग अक्सर प्रतिक्रिया करते हुए द्वेष और नफ़रत पाल लेते हैं। यह प्रतिक्रिया उनके अवचेतन मन में गहरा घाव उत्पन्न कर देती है, जो लगातार टीस मारता रहता है। सिर्फ़ एक ही इलाज है। उन्हें अपनी चोट को काटकर हटाना होगा और इसका एकमात्र अचूक तरीक़ा हैः क्षमा।’  (आपके अवचेतन मन की शक्ति, पृष्ठ 232, क़ीमतः 175 रुपये, प्रकाशकः मंजुल पब्लिशिंग हाउस प्रा. लि., 2 फ़्लोर, ऊषा प्रीत कॉम्प्लेक्स, 42 मालवीय नगर, भोपाल, भारत- 462003, फ़ोनः 07554240340, वेबसाइटः www.manjulindia.com )

¤ क्षमा के ज़रिए ग़रीबी और कैंसर से मुक्ति पाई
   लुइस एल. हे इस बात का ज़िन्दा सुबूत हैं कि क्षमा के ज़रिए ग़रीबी और कैंसर से मुक्ति पाई जा सकती हैं। रिकॉर्ड बिक्री करने वाली 27 किताबों की लेखिका लुइस ने अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक You Can Heal Your Life में बताया है कि जब वह अपनी मां की गोद में ही थीं कि उनके माता-पिता का तलाक़ हो गया। उनकी माँ को गुज़ारे के लिए घरेलू नौकरानी के रूप में काम करना पड़ा। फिर उनकी माँ ने एक जर्मन व्यक्ति से विवाह कर लिया। लुइस का अधिकाँश बचपन दुव्र्यवहार झेलते हुए बीता। उनकी पढा़ई पूरी नहीं हुई और बड़े होकर भी उन्हें बहुत सी मुसीबतें झेलनी पड़ीं। यहां तक कि उन्हें अपनी बेटी भी एक दम्पत्ति को देनी पड़ी। उनका विवाह हुआ और पति से तलाक़ भी हुआ। इसके बाद उन्होंने जाना कि मन की भावना को बदल कर जीवन में हर चीज़ पाना मुमकिन है। तभी उन्हें कैंसर हो गया। पुस्तक के अंत में वह स्वयं बताती हैं कि कैसे उन्होंने क्षमा का प्रयोग करके अपने मन को शुद्ध किया और कैसे 6 महीने बाद उनका डॉक्टर कैंसर को ग़ायब देखकर हैरान रह गया।
लुइस 88 साल की उम्र में आज भी एक सेहतमन्द ज़िन्दगी गुज़ार रही हैं। वह दुनिया को बताती हैं कि बीमारी की वजह मन में है न कि शरीर में। शरीर में केवल बीमारी के लक्षण होते हैं। जो बताते हैं कि मन में नकारात्मक और विध्वंसक विचार जमा हैं। मन के विचारों और भावनाओं को बदल दिया जाता है तो शरीर से उनके लक्षण भी ग़ायब हो जाते हैं।
ग़रीबी का कारण भी ग़रीबी की मानसिकता है। जिसे अमीरी की मानसिकता से बदला जा सकता है। इसके बाद ग़रीबी बाक़ी नहीं रहती। लुइस के विचारों ने आधुनिक चिकित्सा जगत पर गहरा असर छोड़ा है। उनकी किताबों ने करोड़ों डॉलर का बिज़नेस किया। आज लुइस दुनिया की प्रभावशाली हस्तियों में गिनी जाती हैं। वह बताती हैं कि उन्हें इस बुलन्द मक़ाम तक पहुंचने में क्षमा ने मदद की है।
इन दोनों किताबों में क्षमा की तकनीक से काम लेकर जीवन को ख़ुशहाल बनाने के कई तरीक़े बताए गए हैं। जो आप सभी के लिए उपयोगी हैं। इन का अंग्रेज़ी संस्करण इंटरनेट से डाउनलोड किया जा सकता है। हम स्वयं भी अपने पाठकों से क्षमा याचना के साथ इस पुस्तक का समापन करते हैं।
अब आपके पास अपनी ज़रूरत की हर चीज़ पाने की दिव्य चमत्कारी विधि आ चुकी है।
‘उठिए, जागिए और वरदान पा लीजिए।’
XX--The End--XX



इस विषय पर अपनी जानकारी को पुष्ट करने के लिए निम्न पुस्तकों को अवश्य पढ़ें:

1. कितने दूर कितने पास
   ‘वेद और क़ुरआन फ़ैसला करते हैं’
   लेखकः  अल्लामा सैयद अब्दुल्लाह तारिक़
   प्रकाशकः रौशनी पब्लिशिंग हाऊस
   बाज़ार नसरुल्लाह ख़ां, रामपुर (उ.प्र.)
   वेबसाइटः www.workglobal.in
                   www.worktrust.in

2. क़ुरआन मजीदः  एक परिचय
   लेखकः मौलाना सदरुद्दीन इसलाही
   मधुर संदेश संगम, 20 अबुल फज़्ल इन्कलेव
   जामिया नगर, नई दिल्ली - 110025
   फ़ोनः 011-26953327, 09212356332
e-mail : madhursandeshsangam@yahoo.co.in
  
3. आवागमनीय पुनर्जन्म
   लेखकः डॉ. मुहम्मद अहमद
   मिलने का पता उपरोक्त

4. इस्लामः आतंक या आदर्श?
   लेखकः  श्री स्वामी लक्ष्मीशंकराचार्य जी
   मिलने का पता उपरोक्त

5. नराशंस और अन्तिम ऋषि
   लेखकः डॉ. वेदप्रकाश उपाध्याय
   प्रकाशकः जम्हूर बुक डिपो, निकट मुस्लिम फ़ंड
   देवबन्द (उ.प्र.) 247554
online: antimawtar.blogspot.in  

6. हक़ प्रकाश बजवाब सत्यार्थ प्रकाश
   लेखकः शैख़ुल इसलाम मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी
   प्रकाशकः अलकिताब इन्टरनेशनल, मुरादी रोड
   बटला हाउस, जामिया नगर, नई दिल्ली-25
online available Urdu/Hindi

7. दौलत, सेहत और ख़ुशियाँ पाने का तरीक़ा
   लेखकः  डा. अनवर जमाल 
   कार्यालय ‘वन्दे ईश्वरम्’ मासिक
   117 साबुनग्रान, मेन मार्कीट, देवबन्द, उ. प्र.
   पिन कोड 247554

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