Wednesday, April 8, 2015

swami-dayanand-ne-kiya-khoja-kiya-paya-second-edition-Part-2

¤ स्वामी जी डरपोक और लालची न थे ---Link:-Unicode Book Part: one----three-----and---Last
     स्वामी जी ने बुद्धि और तर्क से काम लिया। उन्होंने आर्यजाति के गौरव की वापसी के लिए मूर्तिपूजा का खंडन किया। उन्होंने वेद का प्रचार किया। वेद को समझने के लिए उन्होंने अपनी मान्यताएं स्वयं स्थापित कीं। यह सब करना आसान काम नहीं था लेकिन उन्होंने किया। उनमें साहस कूट-कूट कर भरा था। उन्हें मौत की धमकियां दी गईं और उन पर कई बार क़ातिलाना हमले किए गए लेकिन वह इन से कभी नहीं डरे। उनमें रुपये-पैसे का लोभ नहीं था। उनमें इस तरह की कई ख़ूबियां थीं। जिनकी प्रशंसा उनके मिलने वालों ने की है। उन्होंने कहा कि सबको वेद पढ़ने का अधिकार है। सब वेद पढ़ें और वेदानुकूल आचरण करें। जो ऐसा न करेगा, वह ग़ोता खाता रहेगा। स्वामी जी का निमन्त्रण सबके लिए आम है।

¤ हमारा मक़सद
     स्वामी जी अपना काम करके जा चुके हैं। उनके निमन्त्रण पर विचार करने का काम अब हमारा है। इसके लिए हमें पूर्वाग्रह से मुक्त होकर सोचना  होगा। हम उनके अनुयायी हों या न हों लेकिन वेद हमारे पूर्वजों की विरासत है। यह हम सबके लिए है। अगर स्वामी दयानन्द जी ने वास्तव में सच्चा वेदार्थ जान लिया है तो उन्होंने हम पर बड़ा उपकार किया है। अब हम उनके माध्यम से वेदों को आसानी से समझ सकते हैं और अगर वह वेदों का सही अर्थ नहीं जान पाए थे और वह अपने अनुमान से वैसे ही कोई अर्थ बताकर चले गए हैं तो उस भ्रम के कारण लोगों को लोक-परलोक में नुक्सान पहुंचना भी तय है।
स्वामी जी के साहित्य और उनकी जीवनी के अध्ययन से हमने यही जानने की कोशिश की है कि स्वामी दयानन्द जी ने क्या खोजा और क्या पाया?
    स्वामी जी से असहमत होने का अर्थ उनका निरादर करना हरगिज़ नहीं है। इसीलिए जहां कहीं उनके बारे में कोई राय दी गई है तो उनके लिए उन्हीं के शब्दों का प्रयोग किया गया हैे। इनसे भी किसी को कष्ट हो तो हम क्षमा चाहते हैं। इसका अर्थ यही है कि ये शब्द ही कष्टदायक हैं। दूसरों को भी इन शब्दों से दुख होता है। यह ख़याल करके इन्हें क्षमा-याचना सहित स्वामी जी के साहित्य से हटा दिया जाए।

¤ सच्चा योगी गुरू न मिला, नशे की लत पड़ी
     मूलशंकर ने सच्चे योगी गुरू की खोज शुरू की, जो उसे ‘सच्चे शिव‘ के दर्शन करा सके। इस खोज में वह पहले ‘शुद्धचैतन्य’ और फिर ‘दयानन्द’ बन गये लेकिन उन्हें पूरे भारत में ऐसा कोई योगी गुरू नहीं मिला जो उन्हें ‘सच्चे शिव’ के दर्शन करा देता। इसके विपरीत स्वामी जी को चांडालगढ़ स्थित दुर्गाकुण्ड के मन्दिर में प्रवासकाल के दौरान नशे की लत और पड़ गई। वह स्वयं कहते हैं-
‘दुर्भाग्य से इस स्थान पर मुझे एक बड़ा व्यसन लग गया अर्थात् मुझको भंग सेवन करने का अभ्यास पड़ गया और प्रायः उसके प्रभाव से मैं मूर्च्छित हो जाया करता था।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवनचरित्र, पृ.50, षष्टम् संस्करण, मूल्यः250 रुपये, प्रकाशकः आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट 455 खारी बावली, दिल्ली 110006, दूरभाड्ढः 23958360)
    योगी गुरू की खोज में असफल होने के बाद वह मथुरा में विरजानन्द स्वामी जी से मिले। विरजानन्द स्वामी जी कहते थे कि ‘तीन वर्ष में व्याकरण आता है’। स्वामी दयानन्द जी ने उनसे व्याकरण भी पूरे तीन साल नहीं पढ़ा। यहां रहने के दौरान भी स्वामी जी को सत्य-असत्य का ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाया।

¤ विद्या पाकर स्वामी जी ने शैव की स्थापना की?
मथुरा के बाद वह 2 वर्ष आगरा में रहे। इसके बाद वह ग्वालियर और करौली पहुंचे और फिर वह जयपुर पहुंच गए। इतनी लंबी यात्रा करने और इतनी विद्या पाने के बाद भी स्वामी जी को धर्म और सत्य का कुछ पता न चल पाया था। स्वामी जी कहते हैं-
‘वहां से आगे जयपुर को गया-वहां एक हरिश्चन्द्र विद्वान पंडित था। वहां मैंने प्रथम वैष्णवमत का खंडन करके शैवमत की स्थापना की। जयपुर के राजा महाराजा रामसिंह ने भी शैवमत को ग्रहण किया। इससे शैवमत का विस्तार हुआ और सहस्रों मालाएं मैंने अपने हाथ से दीं। वहां शैवमत इतना पक्का हुआ कि हाथी, घोड़े आदि सबके गले में भी रूद्राक्ष की मालाएं पड़ गईं।’ (म.द.स. का जी.च., पृ.53-54)
    विदा होते समय बिरजानन्द स्वामी जी द्वारा उन्हें आर्ष ग्रन्थों के प्रचार की आज्ञा देना बताया जाता है, उसका क्या हुआ?

¤ स्वामी जी की राय शैवमत के बारे में
    उन्हीं के शब्दों में देखिए-
    ‘(प्रश्न) शैव मत वाले तो अच्छे होते हैं?
    (उत्तर) अच्छे कहां होते हैं? ‘जैसा प्रेतनाथ वैसा भूतनाथ’ जैसे वाममार्गी मन्त्रोपदेशादि से उन का धन हरते हैं वैसे शैव भी ‘ओं नमः शिवाय’ इत्यादि पवक्षरादि मन्त्रों का उपदेश करते, रूद्राक्ष भस्म धारण करते, मट्टी के और पाड्ढाणादि के लिंग बनाकर पूजते हैं और हर-हर बं बं और बकरे के शब्द के समान बड़ बड़ बड़ मुख से शब्द करते हैं। (सत्यार्थ प्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृ. 287, 72वाँ संस्करण दिसम्बर 2009)
    स्वामी जी ने स्वयं भी एक शैव परिवार में जन्म लिया था। बिरजानन्द स्वामी जी से व्याकरण पढ़ने के बाद भी उन्हें यह पता नहीं चला था कि ‘मैं कौन हूँ’, जो कि उनके द्वारा बिरजानन्द जी से पूछना बताया जाता है।

¤ स्वामी जी के समय में हिन्दू समाज की दशा
इस दौरान स्वामी जी ने मथुरा, काशी और वृन्दावन आदि तीर्थों की यात्रा की। जहां उन्होंने खुद प्रत्येक स्तर पर जो पाखण्ड और भ्रष्‍टाचार अपनी आंखों से देखा, उसे उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में बयान किया है। वह हरिद्वार के कुम्भ मेले में भी गए। वहां उन्होंने देखा-
‘संन्यासी जिनका काम जगत का सुधार करना था वह गिरी, पुरी, भारती, अरण्य, पर्वत, आश्रम, सरस्वती, सागर, तीर्थ, गुसांई-इन दस भागों में विभक्त होकर परस्पर गृहयुद्ध में फंसे हुए थे। ...राजा महाराजा आंख के अंधे गांठ के पूरे, इसी प्रकार के संड-मुसंडों के चेले और अनुयायी, तन, मन, धन, गुसांई और गुरू जी को अर्पण करने वाले, चाटुकार और भीरू दरबारियों के संसर्ग में दिन रात रहकर धर्म और संसार से बेसुध, अफ़ीम के गोले चढ़ाने में निपुण साधुओं का अविद्यान्धकार में फंसना और गृहस्थियों का विनाश, राजाओं को मूर्खों से संगति और विद्वानों के प्रति उपेक्षा; विद्वानों का मौनधारण और सत्य का प्रकाश न करना और इस पर एक सत्यप्रिय तथा सत्यवादी की निन्दा, यह सब देखकर स्वामी जी का चित्त अत्यन्त उत्तेजित हुआ, हृदय भर आया।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 83)
    स्वामी दयानन्द जी वास्तव में अपने निश्चय के पक्के और बड़े जीवट के स्वामी थे। उनके प्रयास से भारतीय समाज में वेद सामने आए और मूर्तिपूजा को एक बुराई के रूप में देखा जाने लगा। उन्होंने हिन्दू राजाओं को वेश्यागमन से रोका। उन्होंने सामान्य हिन्दुओं को भी नशा, व्यभिचार, समलैंगिकता व दूसरी बुराईयाँ छोड़ने का उपदेश दिया। इन सब उपदेशों के माध्यम से उन्होंने वर्णाश्रम धर्म को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया।

¤ मैं कौन हूँ और मुझे क्या करना चाहिये?
एक इन्सान जब होश संभालता है तो ऐसे बहुत से प्रश्न उसके मन को बेचैन करते हैं। जब वह इस सृष्टि पर नज़र डालता है और पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं, फसलों और मौसमों को, धरती की सुंदरता और अंतरिक्ष की विशालता को, सूर्य से लेकर परमाणु तक को, उनकी संरचना, संतुलन और उपयोगिता को देखता है तो सहज ही कुछ प्रश्न पैदा होते हैं कि यह सब कुछ खुद से है या इसका कोई बनाने वाला और चलाने वाला है? अगर यह सब कुछ खुद से ही है तो इतना संतुलन और इतनी नियमबद्धता, व्यवस्था और उपयोगिता इन बुद्धि और चेतना से खाली निर्जीव पदार्थो में आई कैसे? और अगर कैसे भी इत्तेफाक़ से आ गई तो फिर निरन्तर कैसे बनी हुई है? और अगर ये सब ख़ुद से नहीं हैं बल्कि किसी ज्ञानवान हस्ती ने इस सृष्टि की रचना की है तो उसने ऐसा किस उद्देश्य से किया है? उसने मनुष्‍य को क्यों पैदा किया? और वह उससे क्या चाहता है? वह कौन सा मार्ग है जिसके द्वारा मनुष्‍य अपनी पैदाईश के उद्देश्य को पाने में सफल हो सकता है? आदि आदि।
मनुष्य अपने परिवार वालों को दुख उठाकर मरते हुए देखता है तो उसके दिल में मौत का डर बैठ जाता है। तब वह सोचने लगता है कि मौत से कैसे बचा जाए या कम से कम मौत के कष्ट से बचने का ही उपाय ढूंढ लिया जाए।

¤ स्वामी जी के घर छोड़ने का उद्देश्य था मृत्यु समय के दुःखों से बचना
स्वामी दयानन्द जी ने भी अपनी 14 वर्षीय बहन को विशूचिका (हैज़ा) से मरते हुए देखा। वह स्वयं बताते हैं-
‘सारांश यह है कि उसी समय पूर्ण विचार कर लिया कि जिस प्रकार हो सके मुक्ति प्राप्त करूं जिसके द्वारा मृत्यु समय के समस्त दुःखों से बचूं।’ (महर्षि दयानन्द सरस्तवी का जीवन चरित्र, पृष्ठ 39)
इस घटना के लगभग 3 वर्ष बाद उनके चाचा की मृत्यु भी विशूचिका से ही हो गई। स्वामी जी बताते हैं-
‘इसके पश्चात मुझे ऐसा वैराग्य हुआ कि संसार कुछ भी नहीं किन्तु यह बात माता-पिता जी से तो नहीं कही किन्तु अपने मित्रों और विद्वान पंडितों से पूछने लगा कि अमर होने का कोई उपाय मुझे बताओ। उन्होंने योगाभ्यास करने के लिए कहा। तब मेरे जी में आया कि अब घर छोड़कर कहीं चला जाऊं।’ (महर्षि दयानन्द सरस्तवी का जीवन चरित्र, पृष्ठ 40)
...और सचमुच वह एक दिन घर छोड़कर निकल खड़े हुए।

¤ स्वामी जी बच न पाए मृत्यु समय के दुःखों से
सारे जप-तप, यम-नियम और योगाभ्यास के बावजूद वह न तो अमर हो सके और न ही मुक्ति पा सके और न ही मृत्यु समय के भयानक दुःखोंे से बच सके, जिसके लिए वह घर से निकले थे। स्वामी जी को मरते समय अपनी बहन और अपने चाचा की अपेक्षा कई गुना अधिक दुःख भोगना पड़ा।
महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 821 पर लिखा है-
‘फिर उनको तीस-तीस चालीस-चालीस दस्त नित्य आया करते थे। जिससे वह दिन प्रतिदिन निर्बल होते गए।’
उन्हें पेट-दर्द भी होता था। उनका मूत्र कोयले के समान निकलता था। उनकी मुंह और जीभ पक गए थे। गले में कफ़ भी बहुत हो गया था। उनका बोलना भी बंद हो गया था। डाक्टर की बात का जवाब भी संकेत से देते थे। उनकी यह हालत 1 महीने से ज़्यादा रही।
‘एक दिन मृत्यु के समीप एक आर्य ने पूछा कि महाराज। आपका गला बैठ जाने का क्या कारण है तो मुख खोलकर बतलाया कि यहां से नाभि तक सब पक गया है और धीमे स्वर से कहा कि नाभि तक छाले पड़ गए हैं।’
(महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 835)
स्वामी जी का दोनों समय हवन भी छूट गया था। स्वामी जी को शौच के लिए बैठाने में भी चार आदमियों को लगना पड़ता था। वह स्वयं करवट तक भी न बदल पाते थे। उन्हें करवट भी दो-चार आदमी दिलाया करते थे। ये सेवक स्वामी जी का कहना कभी मान लेते थे और कभी टाल देते थे। मृत्यु से एक दिन पहले स्वामी जी ने उनसे नाई को 5 रुपये देने के लिए कहा लेकिन उन्होंने उसे 1 रुपया दिया। जिसकी शिकायत नाई ने स्वामी जी से की। स्वामी जी ने मृत्यु के दिन जब क्षौरकर्म करवाया तो स्नान करने की इच्छा की लेकिन उनके सेवकों ने स्वामी जी को नहीं नहलाया। इस तरह उनकी अंतिम इच्छा भी पूरी न हो पाई। उन्हें गीले कपड़े से सिर पोंछकर रह जाना पड़ा। इसी हाल में वह चल बसे।

¤ मक़सद और तरीक़ा, दोनों ग़लत
वास्तव में उनका मक़सद (उद्देश्य) और तरीक़ा दोनों ही ग़लत थे। दुनिया में अमर होने की इच्छा करना भी ग़लत है और इस मक़सद के लिए घर छोड़ना भी ग़लत है। दुनिया में अमर होना या दुःख से बच पाना प्राकृतिक नियम और सृष्टि विज्ञान के विरूद्ध है।
ज़िंदगी का सच्चा मक़सद और उसे पाने का सही तरीक़ा केवल सच्चा गुरू ही बता सकता है। इसीलिए ज्ञान देने वाला एक गुरू वास्तव में ज़मीन और आसमान के सारे ख़जानों से भी बढ़कर है। उसका अनुसरण करके ही मनुष्य अपने लक्ष्य को पाकर सफल हो सकता है। इस तरह एक सच्चे और ज्ञानी गुरू की तलाश हरेक मनुष्य की बुनियादी और सबसे बड़ी ज़रूरत है। लेकिन जैसा कि इस दुनिया का क़ायदा है कि हर असली चीज़ की नक़ल भी यहाँ मौजूद है। इसलिए जब कोई मनुष्य गुरू की खोज में निकलता है तो उसे ऐसे बहुत से नक़ली गुरु मिलते हैं जिन्हें खुली आँखों से नज़र आने वाली चीजों तक की सही जानकारी नहीं होती लेकिन वे ईश्वर और आत्मा जैसी हक़ीक़तों के बारे में अपने अनुमान को ज्ञान बताकर लोगों को भटका देते हैं।

¤ सीढ़ी तोड़ने के कारण स्वामी जी को न परमेश्वर मिला और न सुयोग्य शिष्य
माता, पिता, आचार्य, अतिथि और पुरुष के लिए पत्नी की अहमियत बताते हुए स्वामी जी कहते हैं- ‘ये पाँच मूर्तिमान् देव जिनके संग से मनुष्‍यदेह की उत्पत्ति, पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश को प्राप्ति होती है। ये ही परमेश्वर को प्राप्त होने की सीढ़ियाँ हैं।’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृष्‍ठ 216 30वां संस्करण प्रकाशक : आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट दिल्ली 6)
माता-पिता को छोड़कर तो वह खुद ही निकल गए थे। विवाह उन्होंने किया नहीं इसलिए पत्नी भी नहीं थी। वह ख़ुद दूसरों पर आश्रित थे और न ही कभी उन्होंने कुछ कमाया। इस तरह उन्होंने अतिथि सेवा का मौक़ा भी खो दिया। सीढ़ी के चार पाएदान तो उन्होंने खुद अपने हाथों से ही तोड़ डाले। आचार्य की सेवा उन्होंने ज़रुर की, लेकिन वह उनके नियम भंग कर देते थे तब आचार्य  इतने ज़ोर से उन्हें डण्डा मारता था कि उसका निशान उनके शरीर पर हमेशा के लिए छप जाता था। एक बार तो बिरजानन्द जी ने अपनी अवज्ञा के कारण अपनी पाठशाला से उनका नाम ही काट दिया था। इसी सीढ़ी के टूटे होने के कारण न उन्हें परमेश्वर मिला, न गुरू का प्यार मिला और न ही कोई अच्छा शिष्‍य मिल पाया। वह स्वयं कहा करते थे-
‘मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि मुझे इस जन्म में सुयोग्य शिष्‍य नहीं मिलेगा। इसका प्रबल कारण यह भी है कि मैं तीव्र वैराग्यवश बाल्यकाल में माता पिता को छोड़कर सन्यासी बन गया था।’  (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.121, प्रथम संस्करण जुलाई 1994, मूल्य:  20 रुपये, लेखक : डा. नरेन्द्र कुमार, गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर उत्तराखण्ड में अध्यापक, प्रकाशक: मधुर प्रकाशन 2804 गली आर्य समाज, बाज़ार सीताराम नई दिल्ली 110006, दूरभाष : 3268231, 7513206)

अपनी सीढ़ी तोड़ डालने वालों को नादान समझना चाहिए, गुरु नहीं। भारत को विश्वगुरु के महान पद से गिराने में ऐसे अज्ञानियों का बहुत बड़ा हाथ है, जो पहले अपनी सीढ़ी तोड़ बैठे और फिर जीवन भर भटकते रहे और दूसरों को भी भटकाते रहे। स्वामी जी जैसे लोगों के जीवन से यही शिक्षा मिलती है कि लोगों को अपनी सीढ़ी की रक्षा करनी चाहिए अर्थात अपने माता-पिता और अपने आश्रितों की सेवा करते रहना चाहिए। जो कि स्वामी जी नहीं कर पाए।

¤ विश्वस्त सेवक भी सब निकम्मे निकले
आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट ने भी उनके विश्वस्त सेवकों के विषय में यही बताया है-
‘विश्वस्त सेवक भी सब निकम्मे निकले-स्वामी जी के पास जितने मनुष्य भरोसे के थे, सब निकम्मे निकले।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 820)
‘स्वामी जी का उन सब पर से विश्वास उठ गया।’ (हवाला उपरोक्त)
स्वामी जी को विश्वस्त और कर्मठ सेवक न मिल पाने का कारण भी माता-पिता के विश्वास को भंग करना है।

¤ स्वामी जी के विषय में उनके पिताजी की राय
स्वामी जी ने अपने द्वारा लिखे गए जीवन चरित्र में बताया है कि जब वह घर से चुपके से निकल आए थे तो उनके पिता जी ने उन्हें बहुत तलाश किया और आखि़रकार उन्होंने स्वामी जी को सिद्धपुर के मेले में पकड़ लिया था। स्वामी जी के शब्दों में-
‘एक दिन उस शिवालय में जहां मैं उतरा था प्रातःकाल एकाएक मेरे बाप और चार सिपाही मेरे सम्मुख आ खड़े हुए। उस समय वह ऐसे क्रोध में भरे हुए थे कि मेरी आंख उनकी ओर नहीं होती थी। जो उनके जी में आया सो कहा और मुझे धिक्कारा कि तूने सदैव को हमारे कुल को दूड्ढित किया और तू हमारे कुल को कलंक लगाने वाला उत्पन्न हुआ।
मेरे मन में आतंक बैठ गया कि कदाचित् मेरी कुछ दुदर्शा करेंगे। इस डर से मैंने उठकर उनके पांव पकड़ लिये। मेरा पिता मुझ पर बहुत क्रुद्ध हुआ।
    पिता के डर से असत्य भाड्ढण, परन्तु ध्यान फिर भी भागने में रहा- मैंने प्रार्थना की कि मैं धूर्त लोगों के बहकावे में आकर इस ओर निकल आया और अत्यन्त दुःख पाया। आप शान्त हों, मेरे अपराधों को क्षमा कीजिये। यहां से मैं घर आने ही को था, अच्छा हुआ कि आप आ गये हैं। आपके साथ चलने में प्रसन्न हूं। इस पर भी उनकी कोपाग्नि शान्त न हुआ और झपट कर मेरे कुर्ते की धज्जियां उड़ा दीं और तूंबा छीन कर बड़े जोर से धरती पर दे मारा और सैकड़ों प्रकार से मुझे दुर्वचन कहे और नवीन श्वेत वस्त्र धारण कराकर जहां ठहरे थे वहां मुझ को ले गये और वहां भी बहुत कठिन कठिन बातें कहकर बोले कि तू अपनी माता की हत्या किया चाहता है। मैंने कहा कि अब मैं चलूंगा तो भी मेरे साथ सिपाही कर दिये और उन्हें कह दिया कि कहीं क्षण भर भी इस निर्मोही को पृथक् मत छोड़ो और इस पर रात्रि को भी पहरा रखो परन्तु मैं भागने का उपाय सोचता था और अपने निश्चय में वैसा ही दृढ़ था जैसे कि वे अपने यत्न में संलग्न थे। मुझ को यही चिन्ता थी और इसी घात में था कि कोई अवसर भागने का हाथ लगे।
    ...दैवयोग से तीसरी रात्रि के तीन बजे पीछे पहरे वाला बैठा बैठा सो गया। मैं उसी समय वहां से लघुशंका के बहाने से भागकर आध कोस पर एक बगीचे के मन्दिर के शिखर में एक वटवृक्ष के सहारे से चढ़कर जल का लोटा लेकर छुपकर बैठ गया।...जब अन्धकार हुआ तब रात के सात बजे उस मन्दिर से नीचे उतर कर सड़क छोड़ किसी से पूछ वहां से दो कोस एक ग्राम था; वहां जाकर ठहरा और प्रातःकाल वहां से चला।’  (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 42)

¤ स्वामी जी की असफलता का कारण  
माता पिता आदि को छोड़कर और झूठ बोलकर सन्यास लेने वाले एक उपदेशक के मत की पोल खोलते हुए स्वामी जी कहते हैं-
‘देखो! इस मत का मूल ही झूठ कपट से जमा।’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृ.251)
स्वामी जी को उनके पिता जी ने ‘कुल को कलंक लगाने वाला’ और ‘निर्मोही’ आदि जो कुछ कहा है। वह तो स्वामी जी ने बता दिया है लेकिन धोखा देकर पुनः भाग जाने पर जो कुछ कहा होगा, उसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है। पिता का विश्वास भंग करने वाले को विश्वस्त सेवक न मिलें तो कोई आश्चर्य नहीं है। स्वामी जी के अन्तिम दिनों के दुखद हालात का वर्णन इस प्रकार मिलता है-
    ‘हमने सुना है कि स्वामी जी पहरे वालों और दारोगा आदि पर जब ताड़ना करते थे तो ये स्वामी जी के सामने हाथ जोड़ ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहते थे, पश्चात् परस्पर हंसते थे। स्वामी जी का उन सब पर से विश्वास उठ गया।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 820)
(1) माँ-बाप को जीते जी ही मार डालने वाला आदमी समाज को जीने की सही राह कैसे दिखा सकता है?
(2) स्वामी जी ने सत्य की खोज का आरम्भ ही असत्य से किया तो वह असत्य के सिवा और क्या पा सकते थे?
जिस काम की शुरूआत असत्य और धोखाधड़ी से की जाती है, उसमें असफलता ही मिलती है। अपनी असफलता और उसके कारण के विषय में स्वामी जी ने स्वयं स्वीकार किया है कि
‘मैंने अनेक पाठशालाएं खोलीं। पंडितों को शिष्य बनाया। पर वे लोग मेरे सामने वेद मार्ग पर चलते हैं। तत्पश्चात् पौराणिक बन जाते हैं। वे मेरे प्रतिकूल ताना-बाना बुनते हैं। मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि मुझे इस जन्म में सुयोग्य शिष्‍य नहीं मिलेगा।
इसका प्रबल कारण यह भी है कि मैं तीव्र वैराग्यवश बाल्यकाल में माता पिता को छोड़कर सन्यासी बन गया था। माँ की ममता का मैंने ध्यान नहीं किया। पितृऋण भी नहीं उतार सका। यही ऐसे कर्म हैं, जो मुझे सच्चे शिष्य मिलने में बाधक हैं।’  (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.121)

¤ क्या स्वामी जी का आचरण उनके दर्शन के अनुकूल था?
स्वामी जी की मान्यताएं सही हैं या ग़लत? और वह ‘संसार को मुक्ति’ दिलाने के अपने उद्देश्य में सफल रहे या असफल? और यह कि क्या वास्तव में उन्हें सत्य का बोध प्राप्त था? आदि बातें जानने के लिए स्वयं उनके आहवान पर उनके साहित्य का अध्ययन करना ज़रूरी है। सच्चाई जानने के लिए उनके जीवन को स्वयं उनकी ही मान्यताओं की कसौटी पर परख लेना काफी है क्योंकि सच्चा ज्ञानी अपने उपदेश पर आचरण करके समाज के सामने आदर्श भी उपस्थित करता है।
स्वामी दयानन्द जी कहते हैं कि ईश्वर क्षमा चाहने वाले भक्तों के पाप भी क्षमा नहीं करता क्योंकि अपराधी को क्षमा करना अपराध को बढ़ावा देना है।
‘क्या ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है ?’ इसके उत्तर में वह कहते हैं -
     ‘नहीं। क्योंकि जो पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्‍ट हो जाये और सब मनुष्य महापापी हो जायें। क्योंकि क्षमा की बात सुन ही के उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराधियों के अपराध क्षमा कर दे तो वे उत्साहपूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप करें। क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाए कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते वे भी अपराध करने से न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जायेंगे। इसलिए सब कर्मों का फल यथावत देना ही ईश्वर का काम है क्षमा करना नहीं।’   (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम., पृष्‍ठ 127)
‘न्याय और दया का नाम मात्र ही भेद है क्योंकि जो न्याय से प्रयोजन सिद्ध होता है वही दया से... क्योंकि जिसने जैसा जितना बुरा कर्म किया हो उसको उतना वैसा ही दण्ड देना चाहिये, उसी का नाम न्याय है। और जो अपराधी को दण्ड न दिया जाए तो दया का नाश हो जाए क्योंकि एक अपराधी डाकू को छोड़ देने से सहस्त्रों धर्मात्मा पुरुषों को दुख देना है। जब एक के छोड़ने में सहस्त्रों मुनष्यों को दुख प्राप्त होता है, वह दया किस प्रकार हो सकती है?’ (सत्यार्थ प्रकाश, सप्तम0, पृष्‍ठ 118)
    अब स्वामी दयानन्द जी के उपरोक्त दर्शन के आधार पर स्वयं उनके आचरण को परख कर देखिये कि दया और न्याय का जो सिद्धान्त उन्होंने ईश्वर, राजा और धार्मिक जनों के लिए प्रस्तुत किया है, स्वयं उस पर कितना चलते थे?
    सबसे पहले अनूपशहर ( सम्वत् 1924) की वह घटना देखिए, जिसमें एक ब्राह्मण ने उन्हें पान में ज़हर खिला दिया था।  कर्तव्यनिष्‍ठ तहसीलदार सय्यद मुहम्मद ने अपराधी को गिरफ्तार करके स्वामी जी के आगे ला खड़ा किया तो वह बोले -
‘तहसीलदार साहब, मैं आपके कर्तव्यनिष्ठा से अत्यन्त प्रभावित हूँ। लेकिन आप इसे छोड़ दें। कारण, मैं संसार को कैद कराने नहीं, अपितु मुक्त कराने आया हूँ। यदि दुष्‍ट अपनी दुष्‍टता नहीं छोड़ता, तो हम सन्यासी अपनी उदारता कैसे छोड़ सकते हैं।’ (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द, पृष्‍ठ 49)
(3) इस प्रकार अपराधियों को क्षमा करना और दण्ड से छुड़वाना क्या स्वयं अपनी दार्शनिक मान्यता का खण्डन करना नहीं है?
(4) क्या स्वामी दयानन्द जी ने न्याय और दया को नष्‍ट नहीं कर दिया?
(5) दयानन्द जी ने अपनी दार्शनिक मान्यता के विपरीत जाकर अपने हत्या का प्रयास करने वाले को क्षमा क्यों कर दिया?
(6) क्या इस पाप कर्म की वृद्धि का बोझ स्वामी जी पर नहीं जाएगा?
(7) क्या एक दुष्‍ट हत्यारे को समाज में खुला छोड़कर उन्होंने एक अपराधी के उत्साह को नहीं बढ़ाया और पूरे समाज को खतरे में नहीं डाला?
स्वामी दयानन्द जी द्वारा अपने अपराधी को क्षमा करने की यह अकेली घटना नहीं है बल्कि कई मौक़ों पर उन्होंने अपने सताने वालों और हत्या का प्रयास करने वालों को क्षमा किया है।
‘फ़र्रूख़ाबाद में आर्यसमाज के एक सभासद की कुछ दुष्‍टों ने पिटाई कर दी। लोगों ने स्कॉट महोदय से उसे दण्ड दिलाया । पर स्वामी जी को रुचिकर न लगा। उन्होंने स्कॉट महोदय तथा सभासदों से कहा - चोट पहुंचाने वाले को इस तरह दण्डित करना आपकी मर्यादा के खि़लाफ है। महात्मा किसी को पीड़ा नहीं देते, अपितु दूसरों की पीड़ा हरते हैं।’ (युगप्रवर्तक0, पृष्‍ठ 130)
(8) क्या स्कॉट महोदय व तहसीलदार आदि दुष्‍टों को दण्ड देने वालों से दुष्‍टों को छोड़ने की सिफारिश करना उनको राजधर्म के पालन करने से रोकना नहीं है। जिसकी वजह से दुष्‍टों का उत्साह बढ़ा होगा और वे अधिक पाप करने में प्रवृत्त हुए होंगे?
(9) क्या अपने आचरण से उन्होंने अपने विचारों को निरर्थक और महत्वहीन सिद्ध नहीं कर दिया?
...एक और घटना देखिए, जिसे सबसे ज़्यादा प्रचारित किया जाता है। इसमें उनके धोड़ मिश्र रसोईये के द्वारा उन्हें विड्ढ देना बताया जाता है-
‘स्वामी जी को पता लग गया कि जगन्नाथ ने यह कार्य किया है। उन्होंने उससे कहा-‘जगन्नाथ, तुमने मुझे विष देकर अच्छा नहीं किया। मेरा वेदभाष्‍य कार्य अधूरा रह गया। संसार के हित को तुमने भारी हानि पहुँचाई है। हो सकता है, विधाता के विधान में यही हो । ये रूपए रख लो। तुम्हारे काम आएंगे। यहाँ से नेपाल चले जाओ क्योंकि यहाँ तुम पकड़े जाओगे। मेरे भक्त तुम्हें छोड़ेंगे नहीं।’ (युगप्रवर्तक0, पृष्‍ठ 151)
यदि इस घटना को सच माना जाए तो स्वामी दयानन्द जी की विश्वसनीयता ख़त्म हो जाती है।
(10) संसार के हित को भारी हानि पहुंचाने वाले दुष्‍ट हत्यारे को क्षमा करने का अधिकार तो स्वयं संसार को भी नहीं है बल्कि यह अधिकार तो स्वामी जी ईश्वर के लिए भी स्वीकार नहीं करते। फिर उन्होंने स्वयं किस अधिकार से एक दुष्‍ट हत्यारे को क्षमा करके रूपये देकर उसे भाग जाने का मशविरा दिया?
(11) हो सकता है कि इसी प्रकार के आचरण को देखकर जगन्नाथ पाचक ने सोचा हो कि अव्वल तो मैं पकड़ा नहीं जाऊंगा और यदि पकड़ा भी गया तो कौन सा स्वामी जी दण्ड दिलाते हैं, ‘हाथ जोड़ने आदि चेष्‍टा’ करके बच जाऊंगा और स्वामी जी की क्षमा करने की इसी आदत ने उस हत्यारे का उत्साह बढ़ाया हो?
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